खुले आँगन की खुशबू
वो खुले आँगन की खुशबू, यादों को आज भी महकाती है,
बरसात में चलायी, जो कागज़ की नाव, वो बारिश आँखों में लाती है।
आज भी गर्मी की दोपहरें, उस गुलमोहर की छाँव को बुलाती है,
तारों की बाहों में सोने को, वो चारपाइयाँ जहन को तरसाती है।
खाने की भरी थाल में अब, ममता माँ की अधूरी रह जाती है,
गाँव के उस घर में अब भी जो, मेरी राह में आँखें बिछाती है।
इस अजनबी भीड़ में हीं दुनिया मेरी सिमट कर रह जाती है,
अधूरा सा तो मैं भी यहां हूँ, और हर कल के साथ दुनिया मेरी फिसलती जाती है।
पुकारती है वो वहाँ तो, नींदें मेरी भी कहाँ पूरी हो पाती है,
पर दफ्तर के इन कागज़ों में, ज़िन्दगी उलझी सी चली जाती है।
वो चाभी खुशियों की आज भी, उसी घर का रास्ता दिखती है,
वीरान पड़े कमरे में, जहां माँ की लोरियां रातभर गुनगुनाती है।