खुली तस्वीर को
घूरती आँखें यहाँ जब हुस्न की तासीर को |
इश्क बैठा हारकर फिर कोसता तकदीर को |
है कहाँ मासूमियत अब दिल फ़रेबी से सभी,
ज़हर की इन प्यालियों में खोजता तू खीर को |
फेर ले नापाक नज़रें बाद में पछताएगा,
भूल कैसे तू गया झाँसी की उस शमशीर को |
बन्द कर उरयानियत का खेल जो तू खेलता,
पैऱहन तहज़ीब का पहना खुली तस्वीर को |
मुफ़लिसी की आह को “अरविन्द” कबतक मैं लिखूँ,
ऐ ! हुकूमत बन्द कर झूठी सभी तकरीर को |
✍अरविन्द त्रिवेदी
महम्मदाबाद
उन्नाव उ० प्र०