*खुद को चलना है अकेले*
खुद को चलना है अकेले
बैठे-बैठे सोंचने से नहीं होते है
सच सपने।
कभी उठकर भी पंखों में हौसला
भर अपने।
चलते जाने से ही मंजिल मिलेगी
एक दिन।
बहुत कुछ कार्य तो खुद को करने हैं
हर दिन।
परिवार और आस पड़ोस में
तो कितनो मिलेंगे,
कभी तुम्हारे सहयोगी,
कभी मुख दर्शक,
तो कभी-कभी निस्वार्थ पथ प्रदर्शक।
पर राह में तो,
खुद को चलना है अकेले।
अपने साहस और विश्वास से
खुद लगाना है,
अपनी कश्ती को किनारे।
खुद ले जाना है कदमों को
मंजिल तक।
उठो, जागो और आगे की ओर बढ़ो
क्योंकि बैठे-बैठे सोचने से
सच नहीं होते इस जहां के सपने।
रचनाकार
कृष्णा मानसी
(मंजू लता मेरसा)
बिलासपुर (छत्तीसगढ़)