खुदा! तू है न!
खुदा! तू है न! तो क्यों है खौफ का मंजर
बन्दों से कहो कि फेंक दे दरिया में अपने खंजर.
सन्नाटा है पसरा, कोई कुछ बोलता नहीं
काना – फुसी करने में भी अब डरता है शहर.
खिड़कियां बंद हैं, इशारे भी हो गए हैं कैद यहाँ
फिर कैसे घर आएं? आबोदाना और सहर.
तू जहाँ रहता है, वहाँ ईदगाह है, मजार है
सिद्दत से सोंचो जरा, क्यों बरपा ऐसा कहर.
अब कोई कुछ नहीं कहेगा, कुछ न करेगा
तू ही कुछ कर दे, कि शुकुन से बीते रात का पहर.
इल्म दे, हुनर दे, तालीम दे, बख्श दे जिंदगी
मेहरबानी रहेगी तुम्हारी, सही समझ पैदा कर.
तू तो जनता है- हर भाषा, धरम और करम
आरजू है कि आसानी से करें हर शख्स गुजर-बसर.
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@रचना – घनश्याम पोद्दार
मुंगेर