“खुदा को रुलाता बचपन”
भीख के कटोरे में मजूबूरी को भरकर…
ट्रॅफिक सिग्नल पे ख्वाबों को बेच कर…
ज़रूरत की प्यास बुझाता बचपन………
नन्हे से जिस्म से करतब दिखा कर…
ज़िंदगी की कीमत चुकाता बचपन……..
सुबह से शाम तक पेट को दबाए..
एक रोटी का ख्वाब मन मैं समाए..
झूठन से भूख मिटाता बचपन…….
बेचैनी के बिस्तर पे करवट बदलता…
फूटपाथ पे सपनें सजाता बचपन……
फटे से कपड़ो में तन को लपेटे..
चंद ख्वाहिशों को अपने मन को समेटे…
मुस्कुराहट से खुद को सजाता बचपन…….
पत्थर के टुकड़ों मैं खिलोने देखता..
नन्हे से दिल को समझाता बचपन………
सुख की छाँव से बहुत-बहुत दूर…
मज़दूरी की धूप मैं तपता बचपन……….
कचरे के ढेर से उम्मीदों को चुनता..
ढाबे पर बर्तन रगड़ता बचपन……
मजबूरी का बस्ता कंधे पर उठाए…
ज़िंदगी से सबक सीखता बचपन……
गरीबी के आँगन में सिर को झुकाए..
चन्द सिक्कों में चुपके से बिकता बचपन…
प्यार, त्योहार, खुशी से अंजान..
थोड़े से दुलार को तरसता बचपन..
गिरता, संभलता, बनता, बिगड़ता…
इंसानी दरिंदो से पीटता बचपन…
खुदा का वज़ूद खुद में समाए…
खुदा को रुलाता ये कैसा बचपन? ? ? ? ? ? ?
~इंदु रिंकी वर्मा~