खुदा ! (ईश्वर)
खुदा ! तू है न, तो क्यों हैं, खौफ का मंजर,
बंदों से कह दो कि फेंक दे दरिया में अपने खंजर।
सन्नाटा है पसरा, कोई कुछ यहां बोलता नहीं,
काना- फूसी करने भी डरता है अब शहर।
खिड़कियां बंद हैं, इशारों पर भी लगा है पहरा,
फिर कैसे घर के अंदर आए? आबोदाना और सहर।
तू जहां रहता है, ईदगाह है, मजार है, मंदिर है….
सिद्दत से सोचों जरा, कि क्यों बरपा है ऐसा कहर?
अब कोई कुछ न कहेगा,और न कुछ करेगा,
तू ही कुछ कर कि शुकून से बीते रात का पहर।
इल्म दे, हुनर दे, तालीम दे, बख्श दे जिंदगी
मेहरबानी रहेगी तुम्हारी, सही समझ पैदा कर।
तू तो जनता है, हर भाषा, धरम करम और मरम
आरजू है कि आसानी से करे हर शख्स गुजर बसर।
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स्वरचित: घनश्याम पोद्दार
मुंगेर