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7 Feb 2019 · 1 min read

खुदगर्ज़

खुदगर्ज़
—————-
आईने में अक्स बढ़ती उम्र का हिसाब मांग रहा है
कांपता हुआ मेरा साया भी अब सहारा मांग रहा है

भूल गया है शख्स अपनी सूरत पहनकर मुखौटे इतने
परेशान है आईना मुझसे भी असली सूरत मांग रहा है

जिंदगी गुजार दी बेफिक्री से जिसने अंधेरे में रहकर
आकर उजाले में अपने हिस्से की रोशनी मांग रहा है

गुजारा था कुछ वक़्त जिस किसी ने मेरे साथ कभी
हर शख्स आज मुझसे हर पल का हिसाब मांग रहा है

खामोशी बहुत है हवेली में रिश्तों में सीलन सी नमी है
अपने घर के कोने में सिमटता बुजुर्ग सुकून मांग रहा है

मत पूछो ‘सुधीर’ जमाने में बेदर्द अपनों ही की दास्तान
जर्जर हवेली में हर खुदगर्ज़ अपना हिस्सा मांग रहा है

— सुधीर केवलिया

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