खिन्नता
……..खिन्नता……
……….
तुम
खिन्न हो
मानते नहीं तुम
समझते पर जानते नहीं
इस समाजिक संरचना से
टूटते रीश्तों की याचना से
टूटते संयम उसकी प्रकाष्ठा से
घृणित स्वार्थसिद्धि मिश्रित सदभाव से
जग
खिन्न है
दुराचार से
भ्रष्टाचार से
घटते सदभाव से
दुराचार के प्रभाव से
स्वहित लोभ लोलुपता से
भ्रष्टाचार जनित दुस्प्रभाव से
धर्म
खिन्न है
धर्मान्धता से
अंधविश्वास से
धर्म के व्यापार से
खिन्न धर्म अपमान से
दिखावा धोखा कुटिलाई से
अंधभक्ति के कुटिल कमाई से
…………✍
पं. संजीव शुक्ल
“सचिन”
11/12/2017