खिड़की के बाहर दिखती पहाड़ी
खिड़की के बाहर दिखती पहाड़ी
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तुम कितने बदले
जैसे बदलता रहता है
यह मौसम
बस नहीं है इस पर किसी का
तुम कितना दूर दूर रहे
जैसे पहाड़ी घरों
की खिड़कियों के नजदीक
गुजरते बादल
फिर भी कभी भी
कभी न बदली
तुम्हारी याद
जो मेरे बगल में आकर
जब तब बैठ ही जाती है
बादल दूर सही
लेकिन बारिश से कहां छूटा
पीछा
आंखें हैं न
कभी भी बरस पड़ती है
पलकों की कोर को
गीला कर जाती हैं
संभव कहां , फिर भी
तुम काश हवा हुए रहते
कि कोई कैद कर लेता तुम्हे
कुछ पल ही सही
अपनी सांसों में
तुम कभी न बदलने वाले
एहसास होते काश
इतना न सताई जाती
फुरसत की वो बेनाम घड़ियां , खुदगर्ज पल
जो अंजान में भी ढूंढती हैं
अपनी सी पहचान
सह अनुभूति
लगाव रुझान….
दर्द में ढूंढती हैं राहतें
सकूं आराम ..
काश !
सब कुछ बदलता रहता है
कभी तो बदल सकता
वह है जो …, मेरा ही विरोधी मेरा मन
कभी भी न बदल सका यह
मेरी भावनाओं की
खिड़कियों से बाहर दिखती
उस पहाड़ी की तरह
जो मेरे अतीत से वर्तमान तक
हमेशा एक सी दिखती है ।
– अवधेश सिंह