खामोशी : काश इसे भी पढ़ लेता….!
” बहुत पढ़ा-लिखा है मैंने…
घर की दीवार पर…
डिग्रियां बहुत सारे संजो रखा है मैंने…!
घर-परिवार, रिश्ते-नातेदार, दोस्त-यार…
आस-पास अपने, बहुत पूछ-परख है मेरे…!
इसी अहंकार से…
आलिशान महल बना रखा है मैंने…!
बहुत लोगों को,काफी अनुभवी…
और समझदार-किरदार बताया है मैंने…!
मगर कभी वह नहीं पढ़ सका…
जो अपनों ने शामोशी में कहा…!
उसके आंखों से बहते आंसू ने कहा..!
दोस्तों-रिश्तेदार के गुमसुम नजर ने कहा…!
बहुत पढ़ा-लिखा है मैंने…
मेल-मिलाप, रिश्तेदारी निभाने को…
रद्दी अखबार का हिस्सा समझ रखा है मैंने..!
संग-साथ, अपनों के प्रेम-पुचकार को..
स्वार्थ से सजा ईस्तहार समझ रखा है मैंने…!
काश इसे पढ़ लेता, समझ लेता…
तो अपनों के बीच अनजान न होता…!
जिंदगी में दर्द का ईलाज समझ लेता…
तो आज मनोरोग का शिकार न होता…! ”
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