ख़ुदगर्ज़ खून
“अरे रतन भैया! क्या हुआ? अभी भी संपर्क नहीं हो पाया क्या पुरू से?”
( रतन को फ़ोन हाथ में लिए परेशान देखते हुए राकेश ने पूछा)
“नहीं राकेश ..( अति निराशा से)
शुरू में वही दो फ़ोन जो आए थे, पैसे के लिए। उसके बाद से तो, जब भी फ़ोन किया बंद ही आता है उसका! इस बात को भी अब तो चार महीने हो चले !
अब तो खेत भी नहीं बचे कि बेच कर घर चलाएँ! दुकान पर भी परसों मुखिया क़ब्ज़ा कर लेगा ।
वहाँ जाते ही पुरू बोला था कि दो लाख चाहिए, कॉलेज एडमिशन के लिए।
बैंक से ऐजुकेशन लोन मिलते ही, ये पैसे वापस कर देगा! हम भी आनन फ़ानन में दुकान गिरवी रख, बचा खेत भी बेंच दिये कि बबुआ को मुश्किल न हो शहर में ..!
क्या पता था कि अपना ही खून इतना ख़ुदगर्ज़ हो जाएगा ! “
(राकेश ने कहना शुरू किया कुछ पछतावे से ..)
“भैया! मेरी ही गलती है, जो मैंने उसको शहर की पढ़ाई के फ़ायदे गिनाए और वो ज़िद्द पर आ गया कि वहीं पढ़ेगा, फिर उसकी वहाँ पढ़ने की व्यवस्था भी कर दी थी मैनें! नहीं करता तो शायद आज….।”
(रतन बीच में ही राकेश की बात काटते हुए..)
“अरे नहीं- नहीं राकेश ! तुमने तो हमारे अच्छे के लिए ही मदद की थी! वो ही मतलबी निकला !
जानते ही हो, मेरी किराने की दुकान सम्भालने से, कैसे साफ़ मना कर दिया था उसने। बात-बात पर लड़ पड़ता था कि मैं इस छोटे से गाँव में नहीं रहूँगा! दिल्ली में पढ़ूँगा ! इंजीनियर बनूँगा!
पढ़ने में अच्छा था, इकलौता था, सो हार गए हम उसकी ज़िद्द के आगे !”
(राकेश ने लंबी साँस भरते हुए कहा..)
“जानता हूँ भैया ! आपने क्या-क्या जतन करके, पहले पचास हज़ार देकर, फिर दो लाख, उसे भेजा था ..
शहर की हवा ही ऐसी होती है …लोग स्वार्थी हो जाते हैं..!”
(रतन ने उदासी भरे स्वर में हामी भरते हुए कहा…)
“हाँ राकेश …और बूढ़े माँ-बाप को अकेला छोड़, भूल जाते हैं!
तुम्हें कोई खबर नहीं मिली न उसकी ?
कोई पता ठिकाना भी तो नहीं कि जाकर देख आएँ!
ठीक तो होगा न वो ?बड़ी चिंता हो रही उसकी।”
(राकेश अब कुछ ग़ुस्से में बोला )
“हाँ ठीक क्यों नहीं होगा ? बताया तो था न आपको कि किसी लड़की के चक्कर में पड़ गया था। उसी के बाद से तो, आप सब से कटता चला गया ! पता भी बदल लिया था, ताकि हम उससे न मिल पाएँ!”
(रतन ने निराशा भरे स्वर में कहा..)
“हाँ भाई! हम तो भेजना ही नहीं चाहते थे। सुधा का रो -रो कर बुरा हाल है ! माली हालत ऐसी कि रास्ते पर आ गए! एक बेटा था, सारी संपत्ति उसमें झोंक दी, ये सोचकर कि वो तो है ही, हमारा सहारा, पर अब तो …”( आँखें डबडबा गईं रतन की)
(राकेश ने ढाढ़स बँधाते हुए कहा..)
“सब्र करो भैया ..कुछ ज़रूरत हो तो बताना, जितना हो पाएगा, मैं ज़रूर मदद करूँगा !”
(रतन ने आँसु पोंछते हुए कहा)
“ठीक है राकेश…तुम दिल्ली कब जा रहे हो वापस ? कितने दिन की छुट्टी पर आए हो “?
(राकेश ने जवाब दिया )
“भैया! अभी कल ही तो आया हूँ, अभी रहूँगा कुछ दिन !”
( और राकेश, पास के अपने दो तल्ले मकान की ओर बढ़ गया-
रतन उसके आलीशान बंगले को निहारते हुए, अपने मकान की ओर देखने लगा ..ख़स्ता हालत, रंग उखड़ा ..अबकी बरसात में शायद ढह ही जाए..(सोचकर काँप गया वो)
अगली सुबह ज़ोर-ज़ोर से दरवाज़ा पीटने की आवाज़ से, सुधा और रतन की नींद टूटी!
” काका! अरे ओ काका!
जल्दी आओ देखो पुलिस आई है !”
(सुधा बुदबुदा पड़ी)
“ये तो राजू की आवाज़ है ..”!
( राजू, राकेश का छोटा बेटा था)
हड़बड़ाकर दोनों दरवाज़े की ओर लपके ..एक ही पल में, जाने कितने बुरे ख़्याल कौंध गए मन में …
दरवाज़ा खोलते ही दोनों के होश उड़ गए…
” अरे साहेब! कहाँ ले जा रहे हो इसको ? किया क्या है राकेश ने ? ”
(रतन ने पुलिस को रोकते हुए, चिंता से बौखलाकर पूछा..)
(पुलिस ने घृणा से जवाब दिया)
“इंसानों की तस्करी …और उनके अंगों का व्यापार !
एक अस्पताल की कंप्लेंट हुई, वहीं से सारा मामला और इसका नाम सामने आया !
भोले भाले बच्चों को, अलग-अलग गाँव से बरगला के दिल्ली में ले जाता और उनकी संपत्ति, पैसे हड़प कर, उन्हें बेच देता ! फिर उनके अलग- अलग अंग बेचकर, खूब कमाता, इसका गिरोह !
भनक पड़ने पर कि पुलिस हरकत में आ गई है, यहाँ ग़ाज़ीपुर में आकर छिप गया राक्षस!”
(रतन के पैरों तले ज़मीन खिसक गई! उसने बेसुधी में, झट राकेश का कॉलर पकड़ लिया और झकझोर कर उसे पूछने लगा)
“पुरू कहाँ है राकेश? ”
(राकेश ने सिर शर्म से और नीचे झुका लिया..)
(रतन तड़प उठा)
“अरे पापी! तेरा भतीजा था रे वो! सगा!
तूने अपने ही घर…..”
और गिर पड़ा रतन ज़मीन पर ….दिल के दौरे से वो चल बसा !
ख़ुदगर्ज़ खून ने, खून कर दिया, अपने ही खून का !
-सर्वाधिकार सुर्क्षित- पूनम झा (महवश)