ख़ामोशी फिर चीख़ पड़ी थी
ख़ामोशी फिर चीख़ पड़ी थी
चुप रहकर वो ख़ूब लड़ी थी
उम्र लगी थी उसको किसकी
नाम लिया तो पास खड़ी थी
मुझको जगाकर वो सोई थी
उसकी लाइट बंद पड़ी थी
दिन में दोनों मिल लेते थे
दिन छोटा था, रात बड़ी थी
रद जब उसकी ट्रेन हुई तो
जान में आकर जान पड़ी थी
पत्थर से पत्थर का नाता था
पत्थर में तस्वीर जड़ी थी
हम भी ‘अरशद’ शेर बबर थे
ढेर हुए जब आँख लड़ी थी