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7 Sep 2024 · 1 min read

ख़ामोशी फिर चीख़ पड़ी थी

ख़ामोशी फिर चीख़ पड़ी थी
चुप रहकर वो ख़ूब लड़ी थी

उम्र लगी थी उसको किसकी
नाम लिया तो पास खड़ी थी

मुझको जगाकर वो सोई थी
उसकी लाइट बंद पड़ी थी

दिन में दोनों मिल लेते थे
दिन छोटा था, रात बड़ी थी

रद जब उसकी ट्रेन हुई तो
जान में आकर जान पड़ी थी

पत्थर से पत्थर का नाता था
पत्थर में तस्वीर जड़ी थी

हम भी ‘अरशद’ शेर बबर थे
ढेर हुए जब आँख लड़ी थी

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