ख़याल ,एहसास,शब्द और बुलबुले
ख़याल ,एहसास,शब्द और बुलबुले
शब्द के फेंके जाल में
दर्द के बुलबुले फँसते है
हाँ उन बुलबुलों में काँटे है
जो तीर की तरह चुभतें है
मेरी बातें तेरे जालों में
तेरी बातें मेरे जालों में
बात न पहुँचती हमतक़
यू हीं ख़ुद में उलझते है
ये बुलबुलों के आबले है
हथेली पे नहीं टिकते
हाँ ज़ेहन और यादों में
इनकी तबियत लगती है
कुछ बुलबुले है जो तकिये पे पड़े है
कुछ हैं जो बिस्तर कि सिल्वटों में छिपें हैं
इन सिलवटों को सीधा नहीं करते
ख़याल इनमे दुबके पड़े महफ़ूज़ रहते हैं
कुछ है जो रात से छत पे टंगे है
और कुछ,बाहों में सिमटे पड़े हैं
कुछ है जो आँखों के कोने में टिके हैं
कुछ हैं जो आँसू के संग पुराने ख़त में लिपटे है
मैं ख़याल हूँ मुझको लिखना नहीं आता
पर क्या बुलबुलों को भी उड़ना नहीं आता
आँखों में बंद कर लो अंदर सो जाएँगे
नींद में मत चलना झट से ये उड़ जाएँगे
फिर कभी हाथों में नहीं आएँगे क्योंकि
तुमको यार यतीश उड़ना नहीं आता
यतीश ९/८/२०१६