खत्म होते संस्कार
दुख होता है बदलते समय पर
खत्म हो रहे संस्कार।
नही रही इज्जत माँ-बाप की बच्चों के द्वारा
अच्छी नही लगती उन्हें
उनकी डांट-फटकार।
खुल रहे वृद्धाश्रम जगह-जगह
हो रहा उनका तिरस्कार।
और अब नही रहा
भाई से भाई का प्यार।
टूट रहे अब संयुक्त परिवार।
रहना चाहता अब हर कोई आजाद
बढ रहा चलन अब फ्रेंडशिप का
चल रहा लिव इन रिलेशन।
जा रहे हम किस ओर।
बेटियों के सम्मान को पहुंच रही ठेस लगातार।
हो गया समाज अर्थ-प्रधान
मान रहे पैसा ही भगवान।
समस्या गंभीर है।
छोडकर संस्कृति अपने भारत की अब
कर रहे पीछा पाश्चात्य का
देख-देखकर सब यह
हो रहा मन बडा अधीर है।
काश अब भी हम संभल जाएं
छोड अवगुणों को
सदगुणों को अपनाएं।
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अशोक छाबडा.
गुरूग्राम।