खता मंजूर नहीं ।
ऐसी क्या बात हुई उनसे,
की रूठ गए खुद से ,
मनाने की खता करना,
उन्हें दिल से मंजूर नहीं।
मुहब्बत में लब्जो को तो,
दिल से लगाना खता भी है,
खामोश है निगाहे उनकी,
इसारो से मनाना मंजूर नहीं ।
कहीं रूठ न जाए ये पलके,
सरमाना यूं भूल न जाए,
हुई खता इन नजरोंं से भी
नजर का लगना मजूर नहीं।
दिलोंं और जान से ,
मोहबब्त हुई है जो तुमसे,
हुई खता इन होठो से भी है
इन ओठों को जताना मंजूर नहीं।
रचनाकार
बुद्ध प्रकाश
मौदहा हमीरपुर।