खंड: 1
खंड: 1
1..मरहठा छन्द
मात्रा भार 10/8/11
मन पालन करता नियम समझता, चेतन बन कर ध्यान |
शुभ गायन करता,राह पकड़ता, पाता प्रिय गतिमान |
वह पंथ दिखावत,हाथ मिलावत,सबके प्रति सम्मान |
बन सिद्ध विचरता,निग्रह करता,देता उत्तम ज्ञान.
प्रिय मधुर मनोहर ,गाता सोहर, लगता सहज हुज़ूर |
अति मीठी बोली, शुभ रंगोली,मनमोहक भरपूर |
शिव शिव प्रभु कहता, दिव्य गमकता,लगाता जैसे नूर |
वह सबका प्यारा, निर्मल धारा,गुरुवर बिना गरूर |
2…मरहठा छन्द
सुन्दर परिवर्तन, अभिनव जीवन, करता है खुशहाल |
नित मन को बदलत,मिलती दौलत, परिवर्तित हो चाल |
जड़ चेतन बनता,आगे बढ़ता, रखता सबका ख्याल |
है कटुता घटती ,प्रियता बढ़ती , दिल में नहीं मलाल |
जब अभिनव अlता,रस बरसाता, होते मोहक काम |
सब में उमंग हो, सुखद रंग हो, मिलते चारों धाम |
मन में प्रसन्नता,अति तन्मयता, कभी न होती शाम |
है तन जोशीला , प्रिय रंगीला,मिलता सुख विश्राम |
3….अमृत ध्वनि छन्द
मात्रा भार 24
जिसको अति प्रिय राम हैं, वही भक्त हनुमान |
वही अयोध्या धाम में, करत राम गुण गान ||
राम सहायक, सब के नायक,दुनिया कहती |
राम मनोहर, रहते घर घर, वृत्ति समझती ||
अति प्रिय निर्मल, शिवमय अविरल,शांतरसिक हैं |
पावन गाथा, उन्नत माथा, ज्ञानधनिक हैं ||
राम अनंत असीम हैं ,अवध अनंत निवास |
सरयू चारोंओर हैं, जहाँ राम का वास||
अवध निवासी, प्रिय संन्यासी, जन कल्याणी |
मात पिता का, आज्ञा पालक,मधुरी वाणी ||
राम अनुग्रह, जिसके ऊपर, वह अमृत है |
बन कर सुन्दर, मानववादी,वह संस्कृत है ||
4….दोहे
सकल विश्व है राममय,जग पालक श्री राम |
अजर अमर श्री राम की, सारी धरती धाम ||
भुवनेश्वर भगवान प्रभु, सदा काल के काल |
छोड़ सभी जंजाल को,भजो राम तत्काल ||
तन मन से सत्कर्म का, मांग एक वरदान |
दया सिंधु श्री राम जी, का कर प्रति क्षण गान ||
निर्मल मन से राम का, पूजन करना नित्य |
करते रहना अर्चना, मन में रख शुभ कृत्य ||
रामेश्वर रघुपति सदा, जग के पालनहार |
त्रेता युग में राम का, हुआ दिव्य अवतार |
राम सुखद संदेश दे, करते सबको पार|
कभी न छोड़ो संग रह,वे सबके पतवार ||
थल वह परम पवित्र है, जहाँ राम का ग्राम |
सार्वभौम श्री राम का, सकल जगत है धाम ||
सतत राम से नेह का, मतलब बस है एक |
मानवता हो मनुज में, और इरादा नेक ||
त्याग तपस्या वृत्ति के, रामचन्द्र भंडार|
धर्म स्थापना के लिए, लेते वे अवतार||
5.. .मरहठा छंद
प्रिय समतावादी, मधु संवादी,रचता शिव परिवार |
सब का दुख सुनता, हरता रहता, रखता सुखद विचार||
सब के प्रति ममता,सहनशीलता, मन में निर्मल भाव |
परिजन का रक्षक, सूक्ष्म निरीक्षक,मोहक सहज स्वभाव ||
निज मन अति सच्चा,करता अच्छा,सब से करता प्यार |
छल कपट नही है,लपट नहीं है, स्नेहिल है दीदार ||
वह सदा रसातुर,प्रेमिल चातुर,उत्तम है किरदार |
वह अति प्रिय नायक,साथी लायक, सामाजिक आधार ||
6….विधाता छन्द
जहाँ जाओ रहो प्रेमिल, बने प्रिय काम करना है |
चलो सब का बने साथी, सहज सम भाव रखना है |
नहीं रखना परायापन,यही उत्तम मनुज कहता |
सदा संवाद सब से हो, इसी से शुद्ध मन बनता |
नहीं आलोचना करना, बुरी आदत इसे जानो |
सदा व्यवहार अच्छा हो, इसे सार्थक नियम मानो |
सदा कल्याण की इच्छा, रहे मन में सहज जागृत |
गलत कुछ मत कभी सोचो,सदा शुभ कृत्य हो स्वीकृत |
7…अमृत ध्वनि छन्द
मात्रा भार..24
जिसको प्रिय श्री राम हैं, वह है वास सुगंध।
दीन-हीन को अनवरत,देता रहता कंध।।
सुमिरन करता, रटता रहता, रामेश्वर को।
घूम घूम कर, चूमा करता,दीनेश्वर को।
हाथ मिलाता,काम चलाता, दीन मनुज का। भाई बनता,साथी लगता,सदा अनुज का।
धारण कर प्रभु राम को, य़ह है धर्म महान।
उनके क़दमों पर चलो, बन जा सभ्य सुजान।
राम वृत्ति है, शिव संस्कृति है, उच्च आचरण।
त्याग तपोमय,सदा धर्ममय ,शुद्ध आवरण ।
राम भाव है,मधु स्वभाव है,संकटहारी।
राम नाम है अमर धाम है, अजिर विहारी।
8…माधव ध्वनि छंद (अभिनव)
(मात्रिक छंद)
मात्रा भार.. 27
8,8,11
अमृत धारा, बहे जगत में,कुत्सित छोड़ विचार।
पुष्पित हो मन, गमके बगिया,आये शिष्टाचार।
निर्मलता हो,हर मानव में,हो विकास साकार।
शुचिता कायम,करना सिखों,मोहक हो व्यवहार।
सब के प्रति हो, स्नेह सहज अति, हो अपने का भान।
ध्यान लगे जब, काम बने तब,मिट जाये अभिमान।
मत दुश्मन को,गले लगा कर, बनना कभी सुजान।
जो विपक्ष का,अर्थ जानता, उसको सच्चा ज्ञान।
9…दुर्मिल सवैया
जिसके दिल में प्रिय राम सदा, वह भक्त कहावत है जग में I
सियराम अनंत असीम महा, रहती हरि प्रीति सदा पग में I
यशगान किया करता चलता, प्रभु राम अभीष्ट महेश्वर हैं I
अनुराग लिये विचरा करता,उस धाम जहाँ परमेश्वर हैं।
रघुनाथ सहायक हैं जिसके, उसको कुछ की नहिं चाहत है।
रहता मन मंदिर आंगन में, मनमस्त कभी नहिं आहत है।
प्रभु राम भजन लवलीन सदा,बस एक मनोरथ है य़ह ही।
नहिं दूसर काम कभी बढ़िया, बस केवल राम सुवास सही।
10 …सुंदरी सवैया
उसके सब काम बना करते,जिसमें छल और प्रपंच नहीं है।
जिसका सच में लगता मन है,अति उत्तम मानव पंच वही है।
हर रंग जिसे शुभ रंग लगे,उस मानव का हर रंग सही है।
सबके प्रति पोषण भाव जहाँ, वह मानव भारत देव मही है।
मधु पावन भाव जहाँ रहता,वह धाम बना दिखता रहता है।
जिसको प्रिय मानव है लगता, वह त्याग सदा करता चलता है।
जिसमें नहिं भेद कभी दिखता, वह सुन्दर स्नेहिल सा लगता है।
जिसमें समता ममता रहती, वह निर्मल वायु बना बहता है।
11 अमृत ध्वनि छन्द
मात्रा भार 24
जो स्वतन्त्रता के लिए, हो जाता कुर्बान।
सदा अमर इतिहास का, रचता वहीं विधान। ।
जो स्वतंत्र मन, का अनुरागी, वह बड़ भागी।
वह जग में है, निश्चित जानो, मोहक त्यागी।।
नहीं किसी से, याचन करता,प्रिय वैरागी।
बेमिसाल है, दिव्य चाल है,जन सहभागी।।
पराधीनता है नहीँ, जिसको भी स्वीकार।
महा पुरुष के रूप का, लेता वह आकार।।
जिसे गुलामी, नहीँ सुहाती, वही वीर है।
गलत काम को,गंदा कहता,सत्य धीर है।।
हीन नहीं है, स्वाभिमान सा,विमल नीर है।
आत्म प्रतिष्ठा, सबसे ऊपर,स्वयं हीर है।।
12— सरसी छंद
मात्रा। भार 16/11
वहीं प्यार करता भारत से,
जो है बहुत उदार।
सारी वसुधा परिजन जैसी,
दिल का है विस्तार।
भारत सुन्दर उसको लगता,
जिस के सुखद विचार।
भारतीय संस्कृति अति पावन,
बनी हुई उपहार ।
भारतीयता को जो जाने,
उसका हो उद्धार।
सहज सरल उत्तम भारत है,
मानवता का द्वार।
अपनेपन का भाव भरा है,
भारत प्रिय परिवार।
शांति ध्वजा लहराता भारत,
सुख की है बौछार।
विश्व गुरू य़ह आदि काल से,
महिमा अपरम्पार।
क्षमा कृपा इंद्रिय निग्रह का,
भारत शिव आकार ।
सत्य अहिंसा प्रेम पुजारी,
भारत जग का हार।
ब्रह्मा विष्णु महेश देव से,
भारत करता प्यार।
लोकतंत्र ही मूल्य यहाँ का,
मानव है आधार।
सारी जगती खुशी मनाए,
हर क्षण हो त्योहार।
मानवता का विद्यालय हो,
य़ह समग्र संसार।
सेवा भाव रहे अंतस में,
भारत वर्ष प्रचार।
सीमाओं में रहे सकल जग,
मर्यादा की धार।
ऐसा भारत हिन्दू मन में,
करता सदा विहार।
हिन्दुस्तान बने यह धरती,
आये दिव्य बहार।
नैतिकता से जिसे मोह है,
वह है भारतकार।
13—कुंडलियां
चाहत हो बस राम की, और नहीँ कुछ चाह।
सदा राम के भजन से, मिल जाती है राह।।
मिल जाती है राह,हो जाता है मन मगन।
होता मालामाल, पा कर प्रभु श्रीं राम धन।।
कहें मिश्र कविराय, राम जी देते राहत।
जपो राम दिन रात, रहे दिल में यह चाहत।।
चाहत हो संतोष की, यह धन है अनमोल।
यह धन जिसने पा लिया, उसके मीठे बोल।।
उसके मीठे बोल, सिद्ध हो चलता रहता।
आत्मतोष का मंत्र,, सदा वह जपता चलता।।
कहें मिश्र कविराय, जगत में उसका स्वागत।
जो थोड़े में तुष्ट, नहीं अधिकाधिक चाहत।।
14…कुंडलिया
करना तुमसे प्यार है, यह दिल का उद्गार।
इस उत्तम संदेश से, अब होगा इजहार।।
अब होगा इजहार, सुनो ये सच्ची बातें।
मन से मन को जोड़, कटेंगी सारी रातें।।
कहें मिश्र कविराय, हाथ को प्यारे धरना।
कभी न देना छोड़, हृदय से मंथन करना।।
कहता मन बस है यही, तुम हो मेरा प्यार।
कंपन होता हृदय में, जब हों आँखें चार।।
जब हों आँखें चार, समाता तन है तन में।
मिलती अति संतुष्टि, स्वर्ग दिखता है मन में।।
कहें मिश्र कविराय, ओज तन मन में भरता।
आओ मिलो जरूर, यही सच्चा मन कहता।।
15…. दोहे
भाग्य पूर्व के जन्म के, कर्मों का फलदान।
जिसका जैसा कर्म है, उसको वैसा भान।।
नहीं भाग्य में है अगर, लिखा किसी को प्यार।
कितना भी कोशिश करे, नहीं मिलेगा यार।।
कर्म तपस्वी रात दिन, करता रहता काम।
तन मन दिल उसका सहज, बन जाता है धाम।।
सुंदर कर्मों को सतत, जो समझेगा साध्य।
पूजनीय वे कर्म ही, बन जाते आराध्य।।
सुभमय शिवमय कृत्य से, मिल जाता है प्यार।
प्यारा मधुमय हृदय ही, सदा प्रेम का सार।।
स्वच्छ धवल उज्ज्वल विमल, मन में दिव्य बहार।
पहनाता रहता सहज, प्रिय को प्यारा हार।।
प्यार दिखावा है नहीं, यह है अमृत तत्व।
दिल देने से दिल मिले, जागृत हो अपनत्व।।
16…. कुंडलिया
राधा जिसकी प्रेमिका, वही ब्रह्म घनश्याम।
नचा रहा है विश्व को, नटवर मोहन नाम।।
नटवर मोहन नाम, प्रेम की वंशी ले कर।
ध्वनि में स्नेहिल गूंज, चला करता है भर कर।
कहें मिश्र कविराय, कृष्ण को जिसने साधा।
मिला उसी को प्रेम, बना वह खुद जिमि राधा।।
राधा राधा जो कहे, वही कृष्ण अवतार।
श्री कृष्णा के भाग्य में, है राधा का प्यार।।
है राधा का प्यार, श्याम मुरलीधर पाते।
यमुना तट पर बैठ, संग राधा के गाते।।
कहें मिश्र कविराय, श्याम हैं केवल आधा।
होते वे भरपूर, साथ में यदि हों राधा।।
17…. मत्तगयंद/मालती सवैया
नाचत गावत आवत भक्त, शिरोमणि ढोल बजावत भाये।
कृष्ण चरित्र सुनावत बोलत, अंबर में घनश्याम दिखाये ।
आतम में प्रभु की झलके,छवि मोहक मादक रूप लुभाये।
विस्मृत चित्त भुला सुधि को, वह दिव्य स्वरूप सदा सुख पाये।
द्वापर कृष्ण सुराज वहां पर, कंस जहां मरता दिखता है।
कृष्ण चले हरने महि भार, लिखे इतिहास जहां पढ़ता है।
श्याम स्वभाव असीम महा, अति कोमल प्रेमिल नेह भरा है।
मंत्र दिये जग को घनश्याम, पढ़ो जग को यह गेह धरा है।
18…. दुर्मिल सवैया (जीवन)
हर जीवन जीवन होत सदा, इसको बढ़िया घटिया न कहो।
हर भाव कुभाव दिखे इक सा, तन से मन से हर भाव गहो।
सुनना सबकी गुनते चलना, हर बात सुनो विपरीत सहो।
अनुकूलन हो हर जीवन से, दुख को मदिरालय मान रहो।
दुख सागर जीवन है सब का, इसका प्रतिकार नहीं करना।
हंसते चलना मत कुंठित हो, हर हालत में बढ़ते रहना।
सहयोग मिला करता सब को, परमेश्वर को जपते चलना।
विचलो न कभी न निराश रहो, मत द्वंद्व कभी मन में रखना।
19…. अमृत ध्वनि छंद
मात्रा भार 24
प्रेम पंथ पर निकल चल, जैसे चलते श्याम।
मधु प्रिय उत्तम जीवनी, लिखा करो अविराम।।
राह पकड़ना, शुभ कृति करना, यही सरल है।
मत कर निंदा, अतिशय गंदा, सदा गरल है।।
शिव भाषा ही, परिभाषा हो, सच कहना है।
बन चल आशा, अति अभिलाषा, खुद बनना है।।
सबको देना जानता, है ज्ञानी शुभ दान।
ज्ञान दान निःशुल्क से, मिलता है सम्मान।।
सीखो देना, कुछ मत लेना, यह उत्तम है।
ज्ञान दान ही, अभिज्ञान अति, सर्वोत्तम है।।
खो कर पाओ, अलख जगाओ, आगे बढ़ना।
सत्य जागरण, मोहक भाषण, देते चलना।।
20…. दुर्मिल सवैया (करुणा)
जिसमें करुणा सरिता न बहे, वह राक्षस भूत कपूत सदा।
जिसमें नहिं नेह समंदर है, दिखता वह है विषदूत सदा।
नहिं भाव दया जिसमें उसमें, अपराध दिखात अकूत सदा।
दिल में जिसके अनुराग बसे, वह सुंदर मानव छूत सदा।
दुख देख दुखी जिसका मन हो, वह उत्तम कोटि कहावत है।
वह रूप महान सदा जग में, दुख देखत अश्रु बहावत है।
जिसका दिल आतुर हो चलता, हर मानव पीर भगावत है।
विपदा पड़ने पर हाथ गहे, नहिं छोड़त साथ निभावत है।
21…. त्रिभंगी छंद (मात्रिक छंद)
चार पद, प्रत्येक पद में चार चरण और 32 मात्रा,10/8/8/6, पदांत दीर्घ। इस छंद का प्रत्येक पद तीन बार भंग होता है, इसलिए इसे त्रिभंगी छंद कहते हैं।
2+7 चौकल+2अथवा 8 चौकल
नित सुर मुनि गावत, भजन सुनावत, भाग्य मनावत, नाचत है।
मधु ढोल मजीरा, हरते पीरा, सुखी शरीरा, धावत है।
हरि भक्त मंडली, सदा मंगली, झूम झूम सुख, पावत है।
प्रभु आते सुनने, दुख को हरने, भाव विमल बन, आवत है।
प्रिय मोहक दर्शन, शिव दिग्दर्शन, दिव्य मरम यह, मन शोभा।
नहिं काम नशावत, मन स्थिर जागत, मोह भगावत, नहिं लोभा।
जब कृपा बरसती, दया पनपती, करुणामृत रस, मधु टपके।
प्रभु बहुत रसीला, मोहक लीला, के देखन को, मन लपके।
22…. त्रिभंगी छंद
मात्रा भार 10/8/8/6, तीन यति
अति सुंदर शोभा, मन प्रिय लोभा, मधु रति मोहित, सुख पावत।
प्रिय देह बलिष्ठा, अतिशय सुष्ठा, सरस सुधा सम, मन भावत।
वह बुद्धिमान अति, नेति नेति इति, सर्वोपरि वह, जग आवत।
नटवर गोपाला, यशुदा लाला, प्रिय मोहन को, जग गावत।
प्रिय लीला करता, मन को हरता, कर्त्ता धर्ता, दुख मोचक।
वह रास रचाता, सखी बनाता, गोप बालिका, का पोषक।
असुरों का भक्षक, जन संरक्षक, संतों का वह, हितकारी।
जग गावत महिमा, ऊंची गरिमा, अनुपम प्रतिमा, सुखकारी।
23…. त्रिभंगी छंद (नैया)
यह मेरी नैया, बन खेवैया, तुम रखवैया, पार लगे।
हे मेरे प्यारे, सदा सहारे, हृदय दुलारे, भाव जगे।
तुम पार लगाओ, इसे बचाओ, जल्दी आओ, हे प्रीतम।
मत देर करो जी, हाथ धरो जी, कष्ट हरो जी, हे अनुपम।
अब फंसी हुई है, धंसी हुई है, इसे निकालो, पार करो।
देखो नैया को, वर दो इसको, मुंह मत मोड़ों, प्यार करो।
तुम परमेश्वर हो, रामेश्वर हो, जगदीश्वर हो, अब आओ।
हे परम कृपालू , दीनदयालू , हे धर्मार्थी, आ जाओ।
24…. माधव ध्वनि छंद (अभिनव)
मात्रा भार 27, तीन चरण 8/8/11
चार पद, सम तुकांत दो दो या चारों पदों का।
चिंतन करता, बहुत मधुरता, निर्मल स्वच्छ विचार।
मित्र समझता, नहीं कुटिलता, मोहक शिष्टाचार।
अपना जानत, सबको मानत, मन में नहीं विकार।
स्वेच्छा योगी, कभी न ढोंगी, इससे ही कर प्यार।
नयन मिलाता, शीश झुकाता, देता है सम्मान।
सच का राही, सत्य गवाही, है उत्तम इंसान।
सबकी पीड़ा, सहज लेत सिर, इतना बड़ा महान।
स्पष्टवाद की, सदा वकालत, करता दिव्य सुजान।
25…. तुलसी छंद (मात्रिक)
चार पद सम मात्रिक पदान्त तुकांत
प्रत्येक पद में तीन चरण, मात्रा भार 10/8/12, प्रत्येक पद में कुल 30 मात्रा भार
वह धर्म धुरंधर, ज्ञान समंदर, भक्ति भावना रागी।
करता प्रभु भक्ती, अति अनुरक्ती, लोक मंगला त्यागी।
नहिं क्रोध दिखाता, प्रेम सिखाता, प्रिय जीवन बड़ भागी।
सबका कल्याणी, हर्षित प्राणी, स्वार्थरहित अनुरागी।
प्रति क्षण अभिनंदन, ईश्वर वंदन, काम द्वेष का मारक।
करता प्रभु पूजा, काम न दूजा, खुद बनता उद्धारक।
अपने को देखत, सबको खेवत, शुद्ध क्रिया का कारक।
अति प्रेम पिपासू, करुणा आंसू, मधुर शब्द उच्चारक।
26….. तुलसी छंद
सुंदर बालाएं, प्रिय अबलाएं, मोहक रूप निराला।
हर लेती पीड़ा,करतीं क्रीड़ा, दे देतीं सुख प्याला।
अतिशय मनभावन, बहुत लुभावन, सदा प्रेम रस हाला।
तन से अति गोरी, मन से कोरी, दिल है प्रिय मतवाला।
वह ललिता कविता, पावन सरिता, बहती पावन धारा।
जन प्रिया रसीली, छैल छबीली, मंत्रमुग्ध जग सारा।
अति मादक चितवन, रहती मधुवन, अंग सुकोमल प्यारा।
मधु मोहक बोली, जिमि रस घोली, अधर लालिमा क्वारा।
27…. स्वर्णमुखी छंद (सानेट)
मां सरस्वती जिसको प्यारी।
वह लिखता पढ़ता रहता है।
हर मौसम प्रति पल सहता है।
वह मानव प्रिय लेखनधारी।
मन लगता मां के वन्दन में।
शुभ चिंतन ही उसका जीवन।
परहित पावन मधुरिम उपवन।
दिव्य ध्यानरत अभिनन्दन में।
मां सरस्वती का अनुरागी।
पढ़ता और पढ़ाता सबको।
अच्छी राह दिखाता जग को।
वह बनता ज्ञानी बड़ भागी।
माता जी की कृपा झलकती।
जब रचना में सोच गमकती।।
28…. मनहरण घनाक्षरी (वार्णिक)
31वर्ण, चार पद,8,8,8,7
चौथे पद का अंतिम दो वर्ण लघु दीर्घ अनिवार्य।
ब्रह्मवाद निर्विवाद
सामवेद कृष्णवाद
माननीय धन्यवाद
आत्म को सजाइए।
सार तत्व एक जान
ईश का अवश्य गान
स्नेह का रचो विधान
जिंदगी बनाइए।
नित्य जाग प्रेम राग
अर्थ से करो विराग
मोह लोभ त्याग भाग
काम को भगाइए।
तंत्र एक सभ्य जान
थोड़ को अथाह मान
तुष्ट हो बनो सुजान
विश्व को बचाइए।
राजनीति सावधान
योग संग ध्यान ज्ञान
प्रेम का पुनीत भान
लोक में जगाइए।
29…. जनहरण घनक्षरी (वार्णिक छंद)
चार पद, कुल 31 वर्ण, अंतिम वर्ण दीर्घ, अन्य सब लघु, पदों का क्रम: 8,8,8,7
पद मद करत न, सुघर सरस मन,
चपल बनत तन, तज मद रहिए।
जहर उगल मत, कथन मधुर सत,
प्रिय शुभ मधु हिय, धर कर कहिए।
मनुज सहजतम, रहत न मन तम,
वचन कहत जम, परहित करिए।
धरम करम प्रिय, मधु तरुवर हिय,
फलद जलद जिय, रसमय बनिए।
30…. दुर्मिल सवैया
कहना करना बस काम यही, हद में हर मानव जाति रहे।
मत नीच कुकृत्य कुकर्म बसे, मन से हर मानव भांति रहे।
सब दूषित भाव तजें दिल से, मत पाप समंदर वृत्ति बहे।
अति संयम का यह जीवन हो, हर मानव सुंदर सोच गहे।
मत लांघ कभी वह सीम सुनो, मत हानि पड़ोसन को पहुंचे।
जितना अपना हक है उससे, अति तोष करे सुख वृत्ति रचे।
मत कुत्सित भाव रहे मन में, गतिमानक पंथ सदा सुखदा।
करतूति बुरी विषबेलि सदा, इसका परिणाम सदा दुखदा।
31…. तुलसी छंद
मात्रा भार 30, चार पद, प्रत्येक पद में तीन चरण, चरण क्रम 10,8,12, कम से क प्रथम दो चरणांत सम तुकांत अंत में गुरु अनिवार्य।
गुरु सा जो भाई, सचमुच साई, मारग वही दिखाता।
वह दंडित करता, बातें कहता, निः स्वारथ बतलाता।
प्रिय ज्ञान पिलाता, निकट सुलाता, अनुजन को समझाता।
वह डाटत भी है, मारत भी है, किंतु स्नेह का नाता।
बड़ भ्राता सुलझा, कभी न उलझा, ज्ञान रत्न पहनाता।
सत राह प्रदर्शक, शिव दिग्दर्शक, अद्भुत रुप बनाता।
ज्ञानी विज्ञानी, अमृत दानी, जीवन वेद सुनाता।
देता संस्कारा, अनुपम प्यारा, सदा ज्येष्ठ हर भ्राता।
32…..कुंडलिया
जबतक प्रीति खिले नहीं, लगता देह मशान।
दिल से बहते प्रेम रस, में है मोदक शान।
में है मोदक शान, स्नेह की सरिता बनना।
मन से बहे सुगंध, गमकते हरदम चलना।
कहें मिश्र कविराय, जगत में पहुंचो सब तक।
बन गुलाब का फूल, रहे यह जीवन जबतक।।
जबतक मन में दान का, नहीं होय संचार।
तबतक मन दुर्भिक्ष है, अति दरिद्र व्यवहार।।
अति दरिद्र व्यवहार, दांत से धन को पकड़े।
धन संग्रह का जाल, उसे है प्रति पल जकड़े।।
कहें मिश्र कविराय, कृपड़ता मन में जब तक।
रहता मनुज पिशाच, नहीं संवेदन जबतक।।
33….. स्वर्णमुखी छंद (सानेट)
साधारण जीवन जीना है ।
दीनों की रक्षा में मन हो।
सभी जगह अपना दर्शन हो।
आजीवन गम को पीना है ।
प्रखर बुद्धि में मानवता हो।
ऊंचा पद ईमानदार हो।
मर्दानापन शानदार हो।
संरचना में नैतिकता हो।
करुणामृत रस की हाला हो।
सुंदर सुखद शांत मन महके।
भारतीय शुभ चिंतन गमके।
शोषणमुक्त विश्व प्याला हो।
पुनर्जागरण युग आ जाए।
भारत अपना रूप दिखाए।।
34….. तुलसी छंद
10/8/12
जिसका रघु रामा, उत्तम धामा, सभ्य सहज निष्कामा।
वह रम्य सुरम्या, मधुरिम दिव्या,, परम रत्न अभिरामा।
जो रमें राम में, बसे नाम में, वही भक्ति अधिकारी।
जो चले राम में, कहे राम से, वही संत आचारी।
जो राम जपन्ते, राह चलन्ते, वह रामचरित गाता।
रामेश्वर भजता, शिव शिव कहता, वह अव्यय सुख पाता।
मन में हैं रामा, तन में रामा, सियाराममय बनता।
देखत ब्रह्मेश्वर, प्रिय क्षीरेश्वर, गंगेश्वर को चलता।
35…. मधुमालती छंद
7,7,7, 7 मात्रा भार
सुनो आओ, नहीं जाओ, सुधा पाओ, भलाई है।
नहीं तोड़ो, कभी दिल को, नहीं इसमें, बुराई है।
फलों फूलो, बढ़ो आगे, सदा संगति, करो सत का।
बुलाता है, तुझे बंदा, चले आओ, बनो सब का।
सहजता में, छिपा निर्मल, मनुजता का, सदा शोभन।
यहां मधुमय, सहज रिश्ता, नहीं है कुछ, कहीं लोभन।
यहां शीतल, नदी विमला, बहा करती, रसालय सी।
यहीं दिव्या, सुखद संगति, सदा दिखती, सुधालय सी।
36…. मधुमालती छंद
नहीं आँखें, गिरातीं जल, नहीं दिल ही, समंदर है।
नहीं शुभ का, कहीं आलय, दिखा बस शव, बवंडर है।
सभी जी कर, मरा लगते, सभी में रस, भरा विष का।
नहीं मतलब, किसी से है, बहुत कायर, घटा विष का।
नहीं कोमल, मधुर भावन, सभी चालू, चतुर रहते।
बड़ाई खुद, किया करते, सदा मद में जिया करते।
नहीं देते, दिखाते हैं, सदा ठेंगा, मचलते हैं।
अगर लेते, नहीं देते, दरिंदा बन, मटकते हैं
37…. अमृतध्वनि छंद
मात्रा भर 24
मुड़कर देखा जो नहीं, चलता चढ़ा अनंत।
रचा अमर इतिहास वह, बना सिद्ध प्रिय संत।।
चिंता करता, नहीं किसी की, चलता जाता।
पीता रहता, नफरत हंसकर, गीत सुनाता।
पावन चिंतन, जग अभिनंदन, करता रहता।
सदा समर्पित, ध्यानावस्थित, सबकुछ सहता।
अवतारी वह पुरुष है, बुद्धिमान विद्वान।
पा सकता उसको नहीं, नीच पतित शैतान।।
आया जग में, सत्कर्मी बन, देता समुचित।
न्याय पंथ का, बड़ा पुजारी,सबसे परिचित।
राजनीति का, धर्म नीति का, वह शिव ज्ञाता।
नहीं बोलता, लक्ष्य देखता, सेवक दाता।
38….. मरहठा छंद
10/8/11
तुम हिंदुस्तानी, मीठा पानी, मधुर भाव से स्नेह।
भीतर बाहर से, सदा स्वच्छ हो, कुटिया अनुपम गेह।
जो चोरी करता, पापी बनता, सहता है अपमान।
जो हर प्राणी को, गले लगाता, रचाता हिंदुस्तान।
जो हिंदुस्तानी, खुद सम्मानी, रखता सबका ख्याल।
रक्षक का भावन, निर्मल पावन, मन में नहीं मलाल।
सेवा है मन में, ऊर्जा तन में, दया भाव ही धर्म।
सबका सहयोगी, बनना अच्छा, लगता जिमि सत्कर्म।
39…. वीर रस (आल्हा शैली)
मात्रा भार 16/15
वह विवेक से हीन मनुज है,
जिसका भूतों पर विश्वास।
नित करता चिंतन प्रेतों का,
दूषित आत्मा का अहसास।
ओझा शोखा के चक्कर में,
बन जाता है उनका दास।
स्वप्न देखता मरे जीव का,
ईश्वर से लेता संन्यास।
नर कंकाल डराते उसको,
वह जाता ओझा के पास।
हिचकी खा कर लौंग हाथ ले,
ओझा सदा खींचता श्वास।
कहता खड़ा प्रेत है सिर पर,
जाओ दे दो उसको धार।
अगले मंगल को फिर आना,
तब होगा उसका उपचार।
मत चिंता कर आते रहना,
तेरा भी होगा उद्धार।
हवन कराओ पैसा खर्चो ,
बार बार आओ इस द्वार।
प्रेत मांगता बलि बकरे की,
बकरे से है इसको प्यार।
ओझा शोखा के प्रपंच में,
फंस कर मुरख अति लाचार।
नहीं ईश का वंदन करता,
चेहरे पर है भूत सवार।
स्वयं भूत बन घूम रहा है,
सदा मचाता हाहाकार।
नहीं सोच है पावन निर्मल,
रखता मन में तुच्छ विचार।
नहीं पड़ोसी का शुभ चिंतक,
कलुषित मन करता व्यभिचार।
दूषित भाव प्रेत का सागर,
लांघ सिंधु जाओ उस पार।
जिसका भूतों में मन लगता,
वह फैलाता भ्रष्टाचार।
कभी न दाल प्रेत की गलती,
जहां शुद्ध शुभ शिष्टाचार।
40…. अमृत ध्वनि छंद
मात्रा भार 24
अतिशय दृढ़ विश्वास से, दर्शन देते राम।
सभी जगह मौजूद वे, कण कण उनका धाम।।
सर्व वही हैं, पर्व वही हैं, दृष्टि वही हैं।
अर्श वही हैं, फर्श वहीं हैं, सृष्टि वही हैं।
सदा सामने, नाचा करते, बातें करते।
नहीं छोड़ते, साथ निभाते, हरदम रहते।
श्रद्धा अरु विश्वास में, सदा समाये राम।
अति भावुक रघुनाथ से, पूर्ण होय हर काम।।
राम भजो तो, काम बनेगा, बनो राम का।
रहो संग में, राम गंग में, रहो राम का।
सियाराममय, जग बन जाए, दृष्टि जगेगी।
मन प्रसन्न हो, आत्मतोष हो, तृप्ति मिलेगी।
41…. मधु मालती छंद
7/7/7/7मात्रा भार, चार चरण का एक पद
कुल चार पद, लगागागा (1222)
चलोगे जब, बढ़ोगे तब, तभी तेरा, बनेगा जग।
मिलोगे जब, कहोगे जब, सुनेंगे सब, पड़ेंगे पग।
उठोगे जब, मचल कर तू, बढ़ा कर पग, जगत को छू।
नहीं हिम्मत, कभी हारो, बहादुर बन, गगन को छू।
अकेला चल, नही साथी, यहां कोई, दिखाई दे।
करो पूरा, मनोरथ तुम, स्वयं अपने, निजी बूते।
नहीं कोई, सहायक है, सहायक खुद, बनो अपना।
रहे चिंतन, नवल नूतन, सहज मोहक, खिले सपना।
42….. मिश्र कविराय की कुंडलिया
वादा का निर्वाह हो, तो वादा का अर्थ।
कोरा वादा मूर्खता, इसे समझना व्यर्थ।।
इसे समझना व्यर्थ, झूठ वादा धुर्ताई।
है यह मिथ्याचार, मूर्ख की यह चतुराई।।
कहें मिश्र कविराय, सरल हो जीवन सादा।
अपने को खुद तौल, और तब करना वादा।।
वादा करना धर्म है, इसका हो निर्वाह।
यदि वादा पूरा नहीं, तो यह पाप अथाह।।
तो यह पाप अथाह, नरक की राह दिखाता।
बनकर धोखेबाज, स्वयं उपहास कराता।।
कहें मिश्र कविराय, बहक कर बोल न ज्यादा।
नहीं अगर सामर्थ्य, भूलवश मत कर वादा।।
43…. सरसी छंद
पैसे को जो लक्ष्य समझता,
नहीं खर्च का नाम।
उसका जीवन व्यर्थ बीतता,
होता काम तमाम।
पूंजी करता सदा इकट्ठा,
देता कभी न दान।
धन संग्रह को धर्म समझता,
सदा अर्थ का गान।
पैसे की खातिर वह मरता,
पैसे में ही प्राण।
पैसा देख कूद पड़ता है,
उछल चलाता बाण।
जाप किया करता पैसे का,
पैसा ही भगवान।
सदा अर्थ के स्रोत ढूढता,
सतत बचत पर ध्यान।
निम्न कोटि का भोजन करता,
बड़ा कृपण इंसान।
आगंतुक को देख दुखी वह,
धन पिशाच शैतान।
मन से गंदा तन मलीन है,
है कूड़ा का ढेर।
चिरकुट जैसा रहन सहन है,
पर बनता है शेर।
44…. मिश्र कविराय की कुंडलिया
नाता रिश्ता प्रेममय, यह भावों की डोर।
भौतिक आंधी तोड़ती, भावुकता चहुओर।।
भावुकता चहुंओर, रो रही आज विलखती।
यहां सिर्फ पाषाण, खण्ड से पिटती जगती।।
कहें मिश्र कविराय, लगा है केवल ताता।
जिनका अपना अर्थ, स्वार्थ का केवल नाता।।
नाता नातेदार से, भूल रहे हैं लोग।
क्षरण हो रहा भाव का, है प्रधान बस भोग।।
है प्रधान बस भोग, दंभ का भाव बढ़ा है।
खिसक गई है चूल, दनुज मन ज्वार चढ़ा है।।
कहें मिश्र कविराय, मनुज उसको अपनाता।
जिससे मिलता लाभ, उसी से रिश्ता नाता।।
45…. मधु मालती छंद
7/7/7/7
उसे त्यागो, नहीं ठहरो, जहां दूषित, बसेरा हो।
नहीं जाना, जगह पर उस, जहां दिखता, अंधेरा हो।
भले एकल, बने रहना, सदा बैठो, किनारे पर।
रहे मन में, सहज उत्सव, रमो प्रिय के, सहारे पर।
बनो निर्मल, सफा धारा, चले जाओ, स्वयं बहते।
सहज अविरल, बने चलना, परम प्रिय को, सदा भजते।
नहीं छोड़ो, कभी रास्ता, दिशा उत्तम, सदा पूरब।
बनो गंगा, परम पावन, लगोगे तुम, सहज प्रिय तब।
46…. त्रिभंगी छंद
10/8/8/6
जाओ तो जाओ, कभी न आओ, नहीं बुलाओ, अब भूलो।
अब इसको छोड़ो, मुंह को मोड़ो, देख कभी मत, दिल सी लो।
मत याद करो तुम, मन से बाहर, कभी न अंदर, तुम करना।
इतिहास बनेगा, यह अक्षर है, इस बंदा को, मत पढ़ना।
लिखना मत इस पर, गणना मत कर, पन्ना पलटो, बढ़ आगे।
स्वीकार न करना, मन से हटना, बाहर करना, दिल त्यागे।
यह बने कहानी, नहीं सुहानी, नहीं रवानी, दूर हटो।
अब इसको छोड़ो, नाता तोड़ो, गांठ न जोड़ो, वैरागी।
इसको जाने दो, मर जाने दो, यह भागेगा, वितरागी।
47…. विधाता छंद
भयानक सिंधु यह दुनिया, भयंकर जीव रहते हैं।
भयंकर वृत्ति कामातुर, भयानक रूप चरते हैं।
भयानक मन सदा चंचल, व्यसन का भोग करता है।
भयंकर तन सहज पागल, अचानक टूट पड़ता है।
वही बचता दुराग्रह से, विवेकी जो सदा रहता।
सतत निग्रह किया करता, नियम अनुरूप जो चलता।
गलत से जो डरा करता, सदा सत्यार्थ जीता है।
वही मस्ती भरा मधु रस, निरंतर पेय पीता है।
48…. विधाता छंद
नहीं सुख की करो आशा, यही दुख का महत कारण।
जपो समता बनो रमता, करो सम भाव का पारणा।
नहीं मन को बहकने दो, चलो सीधा सदा सादा।
व्यवस्थित रख सकल जीवन, सुखों में खुश न हो ज्यादा।
दुखों के सिंधु को हंस कर, सदा तुम पार करते जा।
सदा संघर्ष करते बढ़, सहज मुश्किल से लड़ते जा।
कठिन हो राह पर इसको, सदा आसान कहना है।
जरा या रोग से डर मत, सदा बलवान बनना है।
49…. नूतन छंद
4/6/6/6
दिल में, शिव गंगा, शुभ अंगा, प्रिय योगा।
मन हो, जब पावन, आराधन, मधु भोगा।
सुनकर, सब सुंदर, अति प्रियकर, मन नाचत।
रट रट, मन जपता, मधु चखता, तन जागत।
भज मन, शिव प्यारा, अति न्यारा, कैलाशी।
जप कर, नित तप कर, चल पावन, शिवकाशी।
सज धज, कर चलना, नित रहना, शंकर में।
आशा, तुम बन कर, लगे रहो, शंकर में।
50…. कुंडलियां
आवत देखत मित्र को, सज्जन हर्षित होय।
गले लगाता प्रेम से, अहंकार को खोय।।
अहंकार को खोय, सुजन बनता अति पावन।
मेहमान है मीत, यही चिंतन मनभावन।।
कहें मिश्र कविराय, हृदय खुश हो कर गावत।
नैनों में है स्नेह, मित्र जब घर पर आवत।।
मानव मानव सा रहे, बने कभी न भुजंग।
शुचिता के प्रिय देश में, रह कर छाने भंग।।
रह कर छाने भंग, मस्त हो सबको चूमे।
सहयोगी सद्भाव, रखे पृथ्वी पर घूमे।।
कहें मिश्र कविराय, नहिं आदर्श है दानव।
सर्वोत्तम है योनि, बनो देवों सा मानव।।
51…. अभिनव छंद
8/8/6
आग बुझाओ, नहीं लगाओ, सुन प्यारे।
शीतल चंदा, बनना सीखो, रह न्यारे।
छू अंबर को, चल अंतर को, हरिद्वारे।
गलत सुनो मत, गलत कहो मत, बन तारे।
प्यारा सपना, अनुदिन जपना, शुभ कहना।
मन से उज्ज्वल, दिल से कोमल, शिव बनना।
रहो सुवासित, सदा सुगंधित, जग को कर।
शुद्ध नीर बन, गंग यमुन जिमि, लग मनहर।
52…. तुलसी छंद
10/8)12
यदि हो शंका तो, समाधान कर, अनुमानों में जागें।
हो तर्क परायण, बुद्धि घुमाओ, रख प्रमाण को आगे।
मन को समझाओ, ज्ञान जगाओ, तिमिरांचल तब भागे।
तुम बनो प्रयोगी, उत्तम योगी, मन विवेक तब आगे।
बन चलो निराला, प्रिय मतवाला, दत्त चित्त हो करना।
ले कर में प्याला, पीना हाला, उत्साहित हो चलना।
मत आलस करना, योगी बनना, वैज्ञानिक हो भाषा।
अतिशाय सुबुद्धता, ज्ञान शुद्धता, की गढ़ना परिभाषा।
तुम क्रमशः बढ़ना, चिंतन करना, अवलोकन अपनाना।
तथ्यों का संग्रह, मोहक विग्रह, विश्लेषण पर ध्याना।
मधु वर्ग बनाओ, पुष्प सजाओ, संबंधों की माला।
चरणों में क्रम हो, सुखद मरम हो, खोज ज्ञान का प्याला।
53…. मरहठा छंद
10/8/11
जब भी मन जागे, प्रभु में लागे, ईश्वर से ही नेह।
यह स्थिति प्रिय उत्तम, अतिशय अनुपम, राम नाम ही गेह।
जब मन अति शुद्धम, दिव्य विशुद्धम, राम दिखाते रूप।
प्रिय भक्त सुरक्षित, नित संरक्षित, नहिं गिरता भव कूप।
प्रभु को मन भजता, नियमित जपता, मोक्ष धाम में वास।
मन सुमन सजल है, विमल धवल है, सियाराम का दास।
प्रभु की वह लीला, बहुत रसीला, सहज देखता नित्य।
नहिं कुछ भी मांगत, प्रभु ही राहत, राम कृपा अति दिव्य।
54…. मेरी मोहक मधुशाला
जीता वह जो पीता हाला, चलता बनकर मतवाला;
करुणा के सागर में डूबा, बनता जग का रखवाला;
यह इसका जीवन कौशल प्रिय, मधुर भाव का रक्षक है;
पीने का आनंद उठाकर, सबको देता सुख प्याला।
करुण भाव से हीन मनुज को, कौन कहे पीनेवाला?
जिसमें यह रस धार नहीं है, कभी न होगा मतवाला;
आंखों में आंसू की हाला, जिसमें नहीं सुशोभित है;
रच सकता है क्या वह सुंदर, मादक मोहक मधुशाला?
55…. त्रिभंगी छंद
10/8/8/6
आना मिलने को, प्रिय बनने को, सुख करने को, आ जाना।
तुम नयन मिलाना, गीत सुनाना, भाव दिखाने, चल आना।
संकोच न करना, कभी न डरना, निर्भय हो कर, मीत बनो।
आ हाथ मिलाओ, गले लगाओ, हार बनाओ, बात सुनो।
दिल में मत रखना, खुलकर कहना, मित्र समझना, सुन प्यारे।
हर बात सुनाना, दिल बहलाना, सदा रिझाना, आ द्वारे।
हो प्रेम परस्पर, बढ़े निरंतर, वृत्ति स्वतंतर, मनभावन।
उठ चलकर आना, साथ निभाना, रच बस जाना, बन सावन।
56…. मधु मालती छंद
7/7/7/7 मापनी…1222
सफल जीवन, उसी का है, नहीं है मद, भरा जिसमें।
सरल बनकर, सदा जीता, सहजता है, भरी ,उसमें।
किया करता, बड़ाई वह, नहीं धोखा, कभी देता।
चहेता बन, सदा रहता, किसी से कुछ, नहीं लेता।
दिया करता, स्वयं कुछ भी, यही इच्छा, जताता है।
पिया करता, सभी का मद, अंधेरा को, मिटाता है।
चढ़ाता वह, सहज प्रेमिल, सुघर चादर, सजाता है।
सदा प्रतिमा, बना मोहक, मधुर वंशी, बजाता है।
57…. विधाता छंद
रहम जिसके हृदय में है, वही इंसान बनता है।
चलाता तीर कटुता का, दनूज शैतान दिखता है।
जहां है धर्म की नैया, वही इंसानियत रहती।
जहां है द्वेष का पतझड़, वहीं हैवानियत जगती।
दया के सिंधु में बहता, गुलाबी फूल मुस्काता।
सुगंधित वायु का कर्षण, सकल संसार को भाता।
रहें आंखें सदा नम यदि, वहीं घन श्याम रहते हैं।
बनाकर देव को विजयी, असुर पर वार करते हैं।
58..…. वीर छंद (आल्हा शैली)
वही मित्र जो मित्र धर्म का,
करता रहता है निर्वाह।
हर स्थिति में साथ निभाता,
मन में रहती बस यह चाह।
सुख दुख का वह साथी बनता,
मित्र नीति की बस परवाह।
हृदय भरा है सहज प्रेम से,
मन में अति मोहक उत्साह।
दो लोगों की देख मित्रता,
जल भुन जाते कुटिल विचार।
सदा चाहते उन्हें फोड़ना,
करते रहते प्रति क्षण वार।
राजनीति खेला करते हैं,
किंतु स्वयं खाते वे मार।
ऊपर से शुभ चिंतक बनते,
भीतर से विष कुटिल कटार।
परम निहायत अवसरवादी,
कहते खुद को नम्बरदार।
बेहया बनकर दौड़ लगते,
तिकड़म करते बारम्बार।
मुंह की खाते गिरते पड़ते,
बहुत बेशरम अति बेकार।
नहीं जानते मित्र प्रीति को,
केवल करते गंदाचार।
मित्र बड़ा सबसे इस जग में,
नहीं मानते वे यह बात।
अपना उल्लू सीधा करते,
धोखे से करते आघात।
शक्ति प्रदर्शन के चक्कर में,
सदा लगे रहते दिन रात।
नीच पतित बदनाम दुष्ट वे,
दिखलाते सबको औकात।
मिल जाता जब सवा शेर तब,
पूंछ छिपाकर जाते भाग।
फिर भी मौन नहीं वे रहते,
छोड़ा करते दूषित झाग।
सड़ियल कुत्ते ये समाज के,
भूक भूक कर गाते फाग।
नहीं भरोसा के ये लायक,
चेहरे पर है काला दाग।
नहीं जानते मित्र चीज क्या?
इनको पैसे से है प्यार।
स्वार्थी अघ पिशाच राक्षस ये,
इनके जीवन को धिक्कार।
59…. विधाता छंद
जहां प्रिय का मिलन होता, वहीं ससुराल सा लगता।
वहीं मेला सुघर मोहक, सुखद मधु जाल सा बनता।
जहां प्रिय दे सुभग दर्शन, वहीं हरि धाम बन जाता।
वहीं दिल में लिपटते, प्रेम का उपहार मिल जाता।
जहां प्रिय स्पर्श करता है, वहीं आनंद मुस्काता।
चला आता लिए पैगाम, प्रेमिल गीत मधु गाता।
जहां प्रिय कर मिलाता हैं, गले का हार बन जाता।
वहीं पर आत्म का दर्शन, सहज साकार मिल जाता।
60….. विधाता छंद
नहीं आनंदमय रस का, कभी वह पान कर पाता।
जला करता पराये से, नहीं मधु पान कर पाता।
घृणा करता सदा सच से, नहीं मस्तान बन पाता।
किया करता भलाई जो, वही उत्थान कर पाता।
जिसे है प्यार नफरत से, भला इंसान क्या होगा?
गलत को जो सही कहता, सदा शैतान वह होगा।
जिसे है प्रेम हिंसा से, वही आतंक करता है।
अहिंसा धर्म का उपदेश, सबको अंक भरता है।
61….. विधाता छंद
चलाना ज्ञान का जादू, सहज सद्गुरु सिखाता है।
पकड़ कर अंगुली जड़ से, सदा शिव पथ दिखाता है।
नहीं कुछ भेद मन में है, पढ़ाता वेद सबको है।
दिखाता ज्ञान का सागर, कराता भान जग को है।
अगर गुरुवर सफल वेत्ता, कुशल वक्ता विरागी हैं।
स्वयं पढ़ते पढ़ाते हैं, सदा निष्काम त्यागी हैं।
बड़े सौभाग्य से पाता, सहज ही शिष्य गुरु ज्ञानी।
सरलता से ग्रहण करता, सकल शिक्षा वटुक ध्यानी।
62….. मधु मालती छंद
सुनाओ तुम, बताओ अब, दिखाते चल, सकल कौशल।
चले चलना, हृदय रहना, सबल दिखना, बनो कोमल
मुलायम सा, सहज निर्मल, विमलता हो, बहुत पावन।
बरसना तुम, सदा उर में, लगे मोहक, मधुर सावन।
जिधर जाओ, उधर देखूं, तुम्हारा पथ, बने मंजिल।
नहीं रुकना, चला करना, सदा रहना, बने हमदिल ।
निवारण हो, समस्या का, विधाता बन, सतत रहना ।
पुकारूं तो, सुनो मन की, हृदय क्रंदन, सदा सुनना।
63….. विधाता छंद
नहीं चुप हो कभी बैठो, नहीं आलस्य करना है।
भगीरथ बन हमेशा चल, धरा पर गंग रचना है।
मिली है जिंदगी ऐसी, सदा शुभ कर्म करना है।
बहे बस प्रेम की धारा, इसी में नित्य बहना है।
नहीं हो पेट की पूजा, कभी मत अर्थ का लालच।
बहो निर्द्वंद्व भावों में, सदा तुम द्वंद्व से जा बच।
फकीरी में सदा जीना, यही मस्ती निराली है।
भगा जो लोक के पीछे, उसी की रात काली है।
64…. मरहठा छंद
10/8/11
हे रास रचैया, कृष्ण कन्हैया, वृंदावन की शान।
तुम नृत्य करो अब, देखें गोपी, तुझ पर हैं कुर्वान।
वंशी ले आओ, खूब बजाओ, चेहरे पर मुस्कान।
गोपी बालाएं, धूम मचाएं, छेड़ें मोहक तान।
तुम चित्त चुराते, मन बहलाते, सहज प्रेम का दान।
नित अंतः पुर में, सबके उर में, बने हुए रसखान।
मधु प्रीति पिलाते, मर्म बताते, देते सबको ज्ञान।
तुम एक अनंता, अथक चलंता, तुमसे ही उत्थान।।
65….. मधु मालती छंद
7/7/7/7
अगर बनना, तुझे है वट, सदा छाया, बनो सबकी।
करो खुश तुम, सहज सबको, झुके चलना, सुनो सबकी।
फलद बन तुम, खड़े रहना, सभी को मधु, पिलाते चल।
रहे आशा, यही मन में, सदा भूतल, रहे अविचल।
अगर बनना, महातम है, रहे निर्मल, सहज भावन।
तपस्या कर, दमन मन का, बनाओ जग, मधुर पावन।
करो अपनी,सदा काया, विमल उज्ज्वल, बनो मोहक।
जगत का हित, रहे ऊपर, बनो उत्तम, महा बोधक।
66…. शक्ति छंद
122 122 122 12
दुबारा न हो इस तरह कुछ कभी।
सुधरना अगर हो समय है अभी।
कटुक मत बनो तुम चलो पंथ धर।
करो सत्य की खोज जाओ सुधर।
कुसंगति कभी भी नहीं ठीक है।
बुरी बात हरदम सहज फीक है।
रहे साथ उत्तम सरल संत का।
मिटे काल दूषित सदा अंत का।
67….. शिव छंद
प्रत्येक पद का मात्रा भार 11, दीर्घ से प्रारंभ, दीर्घ पर अंत
चार पद,, दो दो पद तुकांत या चारो भी तुकांत हो सकते है।
राम वन गमन किए।
मातृ भूमि तज गए।
साथ में लखन सिए।
वन्य रूप धर लिए।
देह वीर भूमि सा।
धीर मन प्रभुत्व था।
आरती सभी किए।
हर्ष राम के लिए।
राम स्वाभिमान थे।
दृश्यमान ज्ञान थे।
धर्म कर्म स्थापना।
थी यहीं सुकामना।
दानवी प्रवृत्ति को।
चाल निंद्य वृत्ति को।
मारते बिगाड़ते।
संत नित्य साजते।
लंक का दहन किए।
मर्म को बता दिए।
सत्यवाद के लिए।
धन्यवाद पा लिए।
68….. शिव छंद
साम दाम दण्ड का।
भेद छेद नीतिका।
राजनीति सीख लो।
सावधान हो चलो।
वीरता अमोल है।
धृष्टत कुबोल है।
धीर बन बढ़े चलो।
फूल बन सदा फलों।
आसरा बनो सदा।
भार मत बनो कदा।
ज्यादती करो नहीं।
काम कर सदा सही।
नीति मन सुबुद्ध हो।
योजना प्रबुद्ध हो।
तोड़ दो कुचाल को।
उच्च देख भाल को।
फेल कर कुनीति को।
मार दो अनीति को।
ज्ञान संधि हो सदा।
पार्थ भाव सर्वदा।
69….. शिव छंद
21 21 21 2 (कुल 11 मात्रा भार)
सत्य प्रिय प्रदेश हो।
आदि अंत एक हो।
चाल सभ्य स्वस्थ हो।
दृश्य निंद्य अस्त हो।
आरती सुकर्म की।
भांति भांति पूज्य की।
पीत वस्त्र प्रिय लगे।
देह भोग अब भगे।
नाप तौल बोलना।
सत्य राह डोलना।
हाल पूछते चलो।
सिर झुका बढ़ो फलो।
निंदनीय त्यागना।
स्तुत्य भाव मांगना।
शुद्ध शब्दकोश हो।
राष्ट्र प्रेम होश हो।
नीर में पवित्रता।
दृष्टि स्वच्छ इत्रता।
दाग सब मिटें सदा।
सुंदरम लगे अदा।
70….. मदिरा सवैया (वर्णिक)
7 भगण+गुरु
राघव राम चलावत बाणन, मारता काटत दैत्य सभी।
तीर कमान सदा कर लेकर, देखत डोलत ताड़त भी।
कांपत लोटत पोटत दानव, देख सुदर्शन चक्र तभी।
सोचत आवत है अब संकट, मृत्यु समीप न दूर अभी।
संतन के रघुनायक रक्षक, भक्षक दानव के बनते।
वीर बहादुर शक्ति धरातल, मौन सदा रहते चलते।
धर्मविरुद्ध रहे यदि दानव, धूल चटावत वे रहते।
संगति सज्जन की अति सुंदर, निर्मल नीर बने बहते।
71….. सरसिज छंद
11/16 मात्रा भार
करो नहीं अभिमान,
शांति निकेतन बनकर दिखना।
स्वाभिमान का भान,
अपने आदर्शों को लिखना।
बनना स्वयं सुलेख,
भू मंडल पर सदा चमकना।
नियमबद्ध आलेख,
वैयाकरणी बनकर चलना।
होना नहीं हताश,
हिम्मत से आगे को बढ़ना।
होता वहीं निराश,
नहीं जनता है जो चलना।
जिसमें में है उत्साह,
वही नियोजन उत्तम करता।
पा जाता है राह,
क्रमशः आगे को वह बढ़ता।
दृढ़ निश्चय मत त्याग,
सदा प्रतिज्ञा पूरी होगी।
रहे कर्म में राग,
बन जाना साधक शिव योगी ।
72…. मनहरण घनाक्षरी (वार्णिक)
प्यार का कमाल यह,
स्वर्ग सिंधु नित्य बह ,
दोष दृष्टि त्याग कर,
नित्य मुस्कराइए।
डूब जाओ अंत तक,
देख लो बसंत तक,
जिंदगी का अर्थ यह,
दिल में सजाइए।
चूम लो सर्वांग तन,
प्रीति भाव को नमन,
विश्व स्नेह दृष्टि नित्य,
मन में जगाइए।
छोड़ तुम सवाल को,
त्याग कर मलाल को,
प्रीति उत्तरा सदैव,
हाथ को मिलाइए।
सोख लो समुद्र को,
तुष्ट कर गरीब को,
रास रस पान कर,
प्रेम घाट जाइए।
स्तुत्य सर्व कर्म कर,
दिल को दुखी न कर,
जीभ पर सुधा रहे,
पास में बुलाइए।
चाह में तरंग भाव,
देह में उमंग नाव,
रंग में चमक दिखे,
सुप्त को जगाइए।
73….. मनहरण घनाक्षरी
प्रेम को समझ सदा,
त्याग रूप यह जुदा,
शिष्ट भाव मूर्ति यह,
ज्ञान को जगाइए।
खोज चल अधीर हो,
देख बढ़ सुधीर हो,
एक एक तत्त्व खोज,
अग्र अग्र जाइए।
देख साहचर्य नित्य,
आस पास दिव्य प्रीत्य,
चेतना भरी हुई है,
विश्व को बताइए।
ब्रह्म लोक प्रीतिमय,
देह आत्म विश्वमय,
पिण्ड में समग्र देख,
सूक्ष्म को सजाइए।
प्रेम को समझ सही,
दिव्य भावमय यही,
अंग अंग प्रेममय,
दिल में समाइए।
हक सभी का है यहां,
मार्ग प्रिय सुगंध सा,
शिष्ट पंथ शुष्ठ सौम्य,
मन में बसाइए।
दोष मुक्त बन रहो,
साफ पाक बात कहो,
दूर हो प्रपंच छल,
सबको नचाइए।
74…. मत्तगयंद/मालती सवैया
211 211 211 211,211 211 211 22
याचक भाव तजो मन से नित, दान स्वभाव विकास करो रे।
देन चहो सबको कुछ तो तुम, हाथ मिलाय प्रसन्न रहो रे।
सुंदर चिंतन हो सबके प्रति, वृत्ति अपावन दोष हरो रे।
जोश भरो सबके मन में प्रिय, उत्तम राय बताय चलो रे।
तोड़ न दो दिल कोमल को तुम, रक्षक हो कर काम करो रे।
आवन का यह अर्थ सही सुन, मानसरोवर धाम रचो रे।
ध्यान रहे सबके प्रति मोहक, मान बढ़ावत नित्य जगो रे।
हानि नही बस लाभ करो नित, भव्य सुशील सुसभ्य बनो रे।
75…. छंद
21 21 21 21
चाल में सुगंध होय।
काल में सुकाल बोय ।
तान में मधुर स्वराज।
प्रेम को अजेय साज।
चाल ढाल मस्त मस्त।
दूर दृष्टि स्वस्थ स्वस्थ।
दोष दृष्टि मार मार।
रोग कष्ट तार तार।
नाज हो सुकर्मदार ।
राज हो अनंत बार।
आत्म भाव जोरदार।
प्रीति नाद बार बार।
श्वेत रंग सत्यनिष्ठ।
सत्व रूप में प्रविष्ट।
रूप धूप काट छांट।
धन्यवाद बांट बांट।
सज्जनानुराग जाग।
नीच भाव राग त्याग।
अंतहीन नेह भाव।
धो रहा सदैव घाव।
76…. मीरा छंद
12 12 11
चलो वहां पर,
सदा बहा कर,
धरम धरा धर,
रचो सुघर घर।
बहो निरंतर,
दिखो स्वतंतर,
चलो अनंतर,
बनो दिगंबर।
फले स्वयंवर,
रहें सुभग वर,
भगें भयंकर,
जगें मधुर नर।
हृदय परस्पर,
मिले चला कर,
दिखे मिला कर,
खिले सजा कर।
कनक लता बन,
सुमन बने मन,
सुखी रहे तन,
दुखी न हों जन।
नहीं मिलावट,
सरल सजावट,
नहीं बनावट,
सुघर लिखावट।
77…. मीरा छंद (मात्रिक)
12 12 11
पकड़ चलो अब,
भरो जखम सब,
नमन करूं अब,
दया करो तब।
सुनो सुना कर,
मदद किया कर,
फरज निभा कर,
चलो मिला कर।
रहम धरम यह,
करम मरम यह,
उठो चला कर,
नहीं शरम कर।
निकट रहो अब,
अलख जगे तब,
मलिन न हो मन,
सदा सत वचन।
जहर नहीं बन,
अमर सजल मन,
नयन रहे नम,
भगे निलज तम।
78…. मनहरण घनाक्ष्ररी
हाथ में तिरंग देख,
राष्ट्र गान दिव्य लेख,
भारतीय भाव भोर,
देश को जगाइए।
धर्मवाद कर्मवाद,
हो नहीं कभी विवाद,
अग्रदूत शांतिदूत,
भारती पुजाइए।
निर्विवाद राम श्याम,
संत हेतु सर्व काम,
भव्य दृष्टि कोण ज्ञान,
विश्व को बताइए।
रंग रूप हो सुडौल,
माधवी विचार बोल,
कृत्य स्तुत्य गर्मजोश,
जिंदगी बनाइए।
मस्त मस्त चाल होय,
स्वस्थ स्वस्थ बीज बोय,
धारणा अजानबाहु,
राघवेंद्र लाइए।
तप प्रधान देश है,
विदेश भी स्वदेश है,
विश्व भाव भारतीय,
प्रेम गीत गाइए।
मूल्य का प्रभाव देख,
मोहमुक्त है सुलेख,
सप्त रंग से खिला है,
एक रंग पाइए।
79…. मंजु छंद/शिव छंद
21 21 21 2
प्यार का जतन करो।
पाप का पतन करो।
भाव में प्रवाह हो।
पावनी बहाव हो।
प्रीति में मगन रहो।
वायु बन गगन बहो।
स्नेह का कथन कहो।
धर्म ध्वज सदा गहो।
लालना करे यही।
पालना करे यही।
दीनवंधु देवता।
विश्व नित्य सेवता।
गंग की तरंग है।
बीज ब्रह्म रंग है।
आन बान शान है।
दर्शनीय जान है।
चूम चूम झूम झूम।
हंस चाल घूम घूम।
फेरियां लगें सदा।
भाव साज सर्वदा।
नव्यता प्रवीण हो।
भव्य स्वच्छ वीण हो।
लीन मन सदा रहे।
प्रीति रस सदा बहे।
80…. अमृत ध्वनि छंद
मात्रा भार 24
रामेश्वर के भजन से, कटते मन के पाप।
जपो नित्य सुमिरन करो, मिटे सर्व संताप।।
राम देवता, शंभु खेवता, जग के पालक।
दुख को हरते, चंगा करते, अतिशय व्यापक।।
सच के रक्षक, जगत निरीक्षक, अति प्रिय न्यायिक।
बिन पग चलते, सब कुछ करते, हैं नहिं कायिक।।
रामेश्वर में राम जी, प्रिय शंकर का वास।
एक दूसरे में उभय, करते सहज निवास।।
राम भजन कर, शिव को जप कर, चल रामेश्वर।
शिव में रामा, पावन धामा, भज रामेश्वर।।
युग्म प्रबल द्वय, सदा समाए, प्रिय एकेश्वर।
गंग क्षीर में, काश्य नीर में, जप क्षीरेश्वर ।।
81 -दोहे (महात्मा गांधी)
वीर धीर अति संयमी, गांधी सदा महान।
अंग्रेजो से थे लड़े , जानत इसे जहान।।
सहज अहिंसक प्रेममय, भारत के वरदान।
महा पुरुष के रूप में, उनका ही यश गान।।
सत्याग्रह की राह पर, चले अकेले मौन।
सत्यव्रती इस दूत को, नहिं जानत है कौन??
उनके सफल प्रयास से, भारत हुआ स्वतंत्र।
गांधी जी की नीति ही, अति मनमोहक तंत्र।।
बैरिस्टर पद छोड़ कर, किया देश आजाद।
भारतवासी के लिए, बने हंस का नाद।।
थे विवेक के पुंज वे, दिव्य स्वदेशी भाव।
अति निर्मल पावन सरल, भारतीय सद्भाव।।
भारत की दृढ़ आतमा, संस्कृति का उत्थान।
गांधी जी की सोच का, करें सदा सम्मान।।
देख देश की दीनता, हुए बहुत बेचैन।
अति संवेदनशील वे, चिंतन नित दिन रैन।।
राष्ट्र पिता के नाम से, जग में हुए प्रसिद्ध।
अति साधारण भाव वे, संत शिरोमणि सिद्ध।।
रचे अमर इतिहास वे, बिना खड्ग बिन ढाल।
भाग गए अंग्रेज सब, देख से की चाल।।
82…..अमृतध्वनि छंद
इस पावन नवरात्रि में, मां दुर्गा का ध्यान।
पूजन अर्चन वंदना, अमृतध्वनि में गान।।
मातृ निवेदन, पावन चिंतन, मां को भज लो।
करो प्रार्थना, हाथ जोड़कर, भ्रम को तज दो।।
शांतचित्त हो, शुद्ध वृत्त हो, मां के द्वारे।
सदा शरण हो, कष्ट हरण हो, तेरे सारे।।
नौ रूपों में मातृ श्री, करतीं दिव्य निवास।
अति मनमोहक भाव मधु, शक्ति सौम्य अहसास।।
मधुर शैलजा, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा च।
प्रिय कुसमांडा, स्कंदमाता म, कात्यायनी क।।
कालरात्रि नित, महा गौरी ग, सिद्धिदात्री स।
नव्य सुगंधित, विश्व प्रशंसित, प्रिय माता नव।।
शक्तिशालिनी दिव्य धन, माता का दरबार।
राक्षसजन को मारने, लिया मात अवतार।।
दुर्गा मोहक, जग की पोषक, असुर मर्दिनी।
जय कृपालु मां, रक्षा करना, प्रेमवर्धिनी।।
संकट मोचन, सज्जन सेवक, साधु संतवर।
शक्ति नायिका, वीर गायिका, दुर्ग चक्रधर।।
83…. माधव छंद
मात्रा भार 27
8/8/11
जब भी मिलना, दिल से लगना, सुन लो हृदय पुकार।
शीतल छाया, बनकर आना, मेरे मन के यार।
गीत सुनाना, सदा लुभाना, हे प्यारे अवतार।
मंच बनाना, पटल सजाना, संगीतों का द्वार।
खुश रहना है, खुश करना है, सुख की हो बरसात।
मुस्कानों से, अरमानों की, सहज मिले सौगात।
मन हर लेना, दिल दे देना, चला करो बारात।
साथ निभाना, हाथ मिलाकर, सदा चलो दिन रात।
हे मेरे प्यारे, सदा दुलारे, चल नदिया के पार।
दोनों हंसते, गाते रहते, चितवन में हो प्यार।
एक दूसरे, के हित में ही, माधव चिंतन सार।
प्रीति जगाकर, हृदय समाकर, लेंगे मधु आकार।
84…. माधव छंद
8/8/11
देखा जब से, मोहित तब से, लगा हो गया प्यार।
मिलने का मन, करता रहता, बिना मिलन बेकार।
अति बेचैनी, प्रति क्षण रहती, जीना है धिक्कार।
समय थम गया, हृदय जल रहा, लगता जीवन भार।
प्यार असीमित, इस धरती पर, यह अनंत आकार।
सबके प्रति हो, शुभ्र कामना, जोड़ सभी से तार।
मन को निर्मल, जो करता है, वह पाता विस्तार।
मुट्ठी में है, प्रीति तुम्हारी, यदि बन खेवनहार।
85…. पद्मावती छंद
10/8/14
श्रृंगार तुम्हारा, अतिशय न्यारा, खुश हो जाता जग सारा ।
मधु मान बड़ा है, दिव्य खड़ा है, मस्तक पर बिंदी तारा।
कोमल वदनी हो, मृगनयनी हो, रूप बहुत है मस्ताना।
होठों पर लाली, मदिरा प्याली, सब दर्शक हैं दीवाना।
हो विश्वमोहिनी, प्रेम योगिनी, सकल लोक की प्रिय माया।
होता हर्षित मन, पुलकित नित तन, देखत तव कंचन काया।
सबका मन हरती, जादू करती, सबको वह खींच बुलाती।
उसकी है चलती, जगती मरती, मद पी दुनिया सो जाती।
86….. मनहरण घनाक्षरी
प्रधान तत्व शारदा,
अहैतुकी कृपा सदा,
मान ज्ञान दान शान,
मातृ को सजाइए।
स्वभाव शील मोहिनी,
घमंड भाव मर्दनी,
मंडनीय वंदनीय,
मातृ को जगाइए।
बयार दिव्य प्रेम की,
पुकार योग क्षेम की,
संहिता पुनीत नीति,
मातृ से लिखाइए।
सदा लिखो पढ़ा करो,
नित्य चल चढ़ा करो,
सीम हो गगन सदा,
ज्ञान को बढ़ाइए।
मत रुको झुको नहीं,
कापुरुष बनो नहीं,
विज्ञ प्राण फूंक फूंक,
चांदनी बुलाइए।
मातृ लोक सुंदरम,
अन्नदा वसुंधरम,
शक्ति शारदा नमामि,
भक्ति को सराहिए।
दुर्ग मातु प्राणनाथ,
आदि अंतहीन हाथ,
सरस्वती स्वयं वही,
ज्योति को जलाइए।
लेखनी करस्थ कर
धारणा समस्त धर,
गति प्रधान कामना,
वेद स्व बनाइए।
87….. विधाता छंद (बेटी)
अगर बेटी नहीं होती, कहां से सृष्टि यह चलती।
प्रलय दिखता समुच्चय में, सदा काली घटा रहती।
सकल यह दृश्य मिट जाता, नहीं संसार रह जाता।
नहीं मानव कहीं दिखता, स्वयं संबंध धुल जाता।
विलोपन देख दुनिया का, जरा यह कल्पना करना।
बचेगा क्या यहां पर कुछ, अगर वेटी हुई सपना।
बिना जननी कहां से पूत, का निर्माण हो जाता।
यही है कोख की रानी, यही है देवकी माता।
इसी पर गर्व करता जो, वही सम्मान करता है।
नहीं है ज्ञान जिसको वह, सदा अपमान करता है।
बहाता प्रेम के आंसू, सहज जो बेटियों पर वह।
सिखाता न्याय का दर्शन, दिखाता पथ सुदर्शन वह।
जहां बौद्धिक गिरावट है, जहीं है वासना कातिल।
जहां करुणा दया ममता,वहीं है बेटियों का दिल।
बहुत सोचो विचारो नासमझ , शैतान मत बनना।
बचाओ बेटियों को प्रिय, यही शुभ काम बस करना।
88…. मनहरण घनाक्षरी (श्री मां)
खार खात दुष्ट संग,
शक्ति रंग दिव्य अंग,
दुर्ग धाम रच सदा,
विश्व को निखारती।
अंग अंग अस्त्र शस्त्र,
लाल रंग वीर वस्त्र,
तेज रूप भाव भव्य,
दुष्ट को पछारती।
चंडिका प्रचंड वेग,
रक्तपान योग नेग,
मर्दिनी महा असुर ,
सभ्यता विचारती।
धोय धोय मार मार,
राक्षसों को बार बार,
भूमि भार तार तार,
मंगला पुकारती।
कर्म योग ध्यान योग,
संत मान प्राण योग,
जंग के लिए सतत,
दुर्ग मां की आरती।
बोल कर पुकारना,
नित्य नव निहारना ,
सुंदरी त्रिपुर शिवा,
वंदनीय भारती।
89…. मनहरण घनाक्षरी
सरल तरल मन, सहज विमल बन, करत सृजन प्रिय, अतिशय सुखदा।
सन सन चलकर, चमक दमक कर, सजत धजत अति, मधुरिम फलदा।
दिल मिल खिल खिल, व्यसन तजत हिल,
थिरक थिरक कर, कुचलत विपदा।
नमन करत हिय, लगत परम प्रिय, चपल दिखत वह, मनहर मरदा।
90….. विधाता छंद
नहीं अच्छी जहां बातें, वहां मत भूलकर जाना।
अहितकर दुष्ट की संगति, बुरी दूषित रखो ध्याना।
जहां हो सत्य का सागर, किनारे बैठ जाना है।
वहींं सत्संग लहरों का, सुखद आनंद पाना है।
जहां हो स्वस्थ मानवता, वहीं सुख सिंधु लहराता।
जहां हो सत्यता कायम, वहीं नैतिक ध्वजा गाता।
जहां द्वेषाग्नि में जलते, सभी मानव सुलगते हैं।
वहीं पर पाप संप्रेषण, सकल दानव विचरते हैं।
नहीं अन्याय का मस्तक, कभी ऊंचा उठे प्यारे।
रचो वातावरण पावन, बने मोहक सकल न्यारे।
कुटिल हर चाल को कुचलो, सदा मुख तोड़ देना है।
बहे अति स्वच्छ निर्मल जल, सभी को मोड़ लेना है।
91…. विधाता छंद
मुखौटा ओढ़ कर इंसान का शैतान चलते हैं।
किया करते सदा दूषित, क्रिया पर ध्यान रखते हैं।
नहीं परहेज गंदे से, सदा है गंदगी प्यारी।
स्वयं को साफ कहते हैं, लफंगी वृत्ति अति न्यारी।
खुदा इनका जुदा सचमुच, अलौकिक कुछ नहीं दिखता।
इन्हे है प्यार पैसे से, सुखद दैहिक बहुत लगता।
इन्हे सत्ता सुहानी है, अधिक है वासना मोहक।
नहीं परवाह औरों की, बने ये घूमते शोषक।
सदा अफवाह फैलाते, घृणा के बीज हैं बोते।
सदा ये जागते रहते, कभी भी हैं नहीं सोते।
चरम है लक्ष्य इनका बस, रहें ये पंक्ति में आगे।
झुके दुनिया बनी मौनी, जरा सा देख कर भागे
92…. विधाता छंद
जहां है प्रेम की धारा, वहीं श्री कृष्ण रहते हैं।
बजा कर प्रीति की वंशी, लिए राधा विचरते हैं।
सहज गोपी वहीं आतीं, मचलतीं देख कान्हा को।
मिलाकर दिल सदा प्रिय से, निछावर सर्व कृष्णा को।
जहां संसार मोहक हो, वहीं प्रेमिल मधुर मोहन।
जहां शिव लोक बनता हो,वहीं मधु भाव सम्मोहन।
जहां सच्चा बहुत प्यारा, जहां संवेदना दिखती।
वहीं पर प्रेम की संस्कृति, सनातन मूल्य नित लिखती।
93……विधाता छंद
सनातन धर्म को जानो, यही दर्शन सुहाना है।
यही है भावना मौलिक, इसी का भाव गाना है।
इसी पर है मनुज दिखता, खड़ा इक सभ्य मानव सा।
इसी पर अस्मिता सबकी, यही है स्वर्ण मुख जैसा।
यही ऋषियों का चिंतन है, सतत पावन क्रिया शोधन।
यही है आत्म का विचरण, यही है स्वत्व उद्बोधन।
यही शाश्वत सदा निश्चल, यही अमृत घड़ा सुंदर।
यही बहता नसों में है, यही है तत्व शिव अंदर।
यही है संत की वाणी, इसी पर लोक की रचना।
यही कहता सभी से है, अहिंसक भाव में रहना।
नहीं हिंसा कभी करना, नहीं आतंक को चुनना।
रहे मन साफ दिल कोमल, सकल जग को समझ अपना।
सभी में तत्व इक ही है, सदा इस मंत्र को जपना।
करो कल्याण जगती का, हितैषी बन थिरकना है।
सभी में भाव मधुरिम हो, इसी पर काम करना है।
सनातन धर्म कहता है,सदा इंसाफ करना है।
दिखे इंसानियत कायम, सरल इंसान बनना है।
रहे दिल में रहम सबके, यही भंडार हीरा है।
यही हरता सकल जग की, निरंतर कष्ट पीरा है।
94….. डॉक्टर रामबली मिश्र के अभिनव छंद
11/11/7
करना सुंदर काम, पाओगे तब नाम, किया करना।
चलना उत्तम पंथ, पढ़ना पावन ग्रंथ, लगे रहना।
रचना मोहक राह, यही दिव्य हो चाह, नही आलस।
होना नहीं निराश, करना नहीं हताश, रखो साहस।
सबके प्रति सम्मान, कभी नही अभिमान, रखो अंकुश।
रखना नहीं मलाल, पूछो नहीं सवाल, सदा रह खुश।
जो सहता है कष्ट, सत्य बोलता स्पष्ट, बने तपसी
वह चलता मुंह खोल, मन में नहिं है पोल, नहीं बहसी।
मुख पर हो उल्लास, चलता रहे प्रयास, श्रम को पूज।
सुनो हमारे मीत, बन जाओ संगीत, कर मत दूज।
रहे सहज मुस्कान सत शिव सुंदर गान, बनो सुजान।
होय सदा रसपान, देखो सत्य बिहान, करो नहान।
95…. डॉक्टर रामबली मिश्र कृत अभिनव छंद
8/11
देखो प्यारे, तेरा मोहन आज।
करता प्रति पल, केवल तुझ पर नाज।
तुझसे कहता, अपने दिल की बात।
इसकी सुनना, प्यारे सब दिन रात।
जन्म जन्म का, यह मनमोहक साथ।
कभी न छूटे, हम दोनों का हाथ
महल सजेगा, आयेगी बारात।
लग जायेंगे, मन के फेरे सात।
रूप सलोना, दिखे सहज हर वक्त।
बने इकाई, अंग अंग अनुरक्त।
यही विश्व हो, पूरे हों अरमान।
हम चमकेंगे, होय प्रीति का गान।
स्वर्ग मिलेगा,, सुख लेगा अवतार ।
अमर रहेगा, नहीं मिटेगा प्यार।
मिट जायेगा,जीवन का संग्राम।
यही समझना, मिला अटल विश्राम।
96….. छंद रत्नाकर
बढ़ना आगे, पीछे मत मुड़, चलते रहना, सोच समझ कर।
लक्ष्य देखना, कभी न रुकना, गति पकड़ो नित, तप तप तप कर ।
नहीं देखना, इधर उधर तुम, आगे देखो, चलना पग धर।
रोड़ा आये, तो हट जाना, फिर चलाता बन, संभल संभल कर।
मंजिल मिलना, निश्चित संभव, यदि दृढ़ निश्चय, मन में होगा।
काम अधूरा, पूरा होगा, यदि विचलित मन, कभी न होगा।
नियमित पावन, सदा सुहावन, प्रिय मनभावन, लक्ष्य सदा हो।
करता जो नर, शुद्ध आचरण, वही सफल गति, शील अदा हो।
वह पंथी है, सच्चा राही, पंथ बनाता, जो चलता है।
निर्विरोध प्रिय, स्वयं प्रकाशित, सदा चहकता, वह रहता है।
नहीं किसी से, कुछ कहता वह, मौन रूप धर, उन्नति करता।
विश्व समझता, उसे पहेली, नित्य नया वह, सहज निखरता।
97…. छंद रत्नाकर
122 122 ,122 122
चलो नित अकेले, नहीं साथ खोजो।
पहुंचता वही है, अकेला चला जो।
मिले हैं बहुत से, सदा राह चलते।
अकेला चले मन, मचलते मचलते।
इधर से उधर से, सभी साथ रहते।
तुझे देख कर वे, निखरते विचरते।
सदा सोच ऐसा, तुम्हीं एक गुरु हो।
क्रिया कर्म कर्ता, स्वयं स्तुत्य कुरु हो।
कभी भी अकेले, नहीं जीव रहता।
यहां इस जगत में, जहां संग चलता।
तुम्हीं देह देही, तुम्हीं आतमा हो।
तुम्हीं आदि अंतिम, सहज ज्योतिमा हो।
बनाया तुझे जो, वही साथ तेरे।
वही घूमता है, लगाता है फेरे।
चलाता निरंतर, सदा चक्र प्यारा।
बचाता तुझे वह, बना नैनतारा।
करोगे भरोसा, चमकते रहोगे।
रहो दृढ़ अटल नित, गरजते रहोगे।
बढ़ो देख मंजिल, निकट है तुम्हारे।
खड़े देख नैय्या, लगी है किनारे।
98…. छंद रत्नाकर
11/11
कर्मनिष्ठ का भाग्य, कभी तो जागेगा।
श्रम के प्रति अनुराग, मनुज को भाएगा।।
श्रम है साधन तत्व, इसे जो अपनाए।
वही सत्व अस्तित्व, जगत में बन जाए।।
होता सफल प्रयास, अगर हो सच आस्था।
रहता मनुज उदास, जहां तिमिरावस्था।।
कर श्रम के प्रति न्याय, बनो इक शिव साधक।
करता जो अन्याय, वही अपना बाधक।।
कर्मनिष्ठ मन वृत्ति, सदा शांती देती।
यह प्रिय लोक प्रवृत्ति, सहज दुख हर लेती।।
99…. छंद रत्नाकर
11/11
यह है शिष्टाचार, हो सबका सम्मान।
रखो सभी का ख्याल, सीखो उत्तम ज्ञान।।
मन में हो मधु भाव, करना तुम उपकार।
मानवता को सींच, यह है सुखद विचार।।
धो कर दुख के घाव, जो देता है छांव।
वह होता है पूज्य, दुनिया छूती पांव।।
सेवा कर्म महान, यह अति पावन धर्म।
रहे समर्पण भाव, यह मोहक सत्कर्म।।
होता खुद ही नाम, यदि हो दिव्य स्वभाव।
सबके मन को मोह, छोड़ो मधुर प्रभाव।।
जीवन का उत्कर्ष, प्रेम भाव में देख।
दनुज वृत्ति को त्याग, लिखना सदा सुलेख।।
100…. छंद रत्नाकर
8/8/11
पहले सोचो, फिर तब बोलो, रखना स्पष्ट विचार ।
बिन चिंतन के, बिन मंथन के, मत करना व्यवहार।।
बात कहो वह, जो हितकारी, खुश हो जाएं लोग।
ऐसा प्रस्तुत, कभी न करना, पैदा हो मन रोग।।
जो सम्मानित, सबको करता, वह देता है दान।
जो गरीब को, तुच्छ समझता, वह मूरख इंसान।।
हीन उच्च का, भेद खत्म जो, करता वही महान।
दीन दलित के, प्रति संवेदन, में रहते भगवान।।
न्यायोचित के, संरक्षण को, मानो पावन पर्व।
दिल सागर के, प्रेम लहर पर, हो आजीवन गर्व।।
प्यार परम सुख, देता रहता, रखना इसका ख्याल।
कभी न देना, तोड़ हृदय को, मत करना बेहाल।
101…. छंद रत्नाकर
8/8/8/11
जो जलता है, वह चलता है, अवनति पथ पर, होता है क्षतिग्रस्त।
जो हितकारी, वह अधिकारी, सदा सारथी, कभी न होता अस्त।।
करुणा सरिता, आत्मा वनिता, लिखती कविता, बहती मार्मिक धार।
कलम चले अब, लिखे अनवरत, छंद शिरोमणि, महा काव्यमय प्यार।।
मुख मुस्काए, सहज लुभाए, स्वर्ग बनाए, चुंबक हो संसार।
भगे कालिमा, दिखे लालिमा, स्वर्णमुखी का, हो क्रमशः विस्तार।।
मिथ्या दर्शन, झूठ प्रदर्शन, गंदा चिंतन, है असुरों की राह।
शंकर मंथन, चमकत कंचन, मोहक मंचन, की सब में हो चाह।।
गलत भावना, पतित कामना, क्रूर साधना, का कर डालो अंत।
चमन खिलेगा, उर महकेगा, चंदन कानन, में देखो प्रिय संत।।
अंतिम मानव, पूजनीय हो, वंदनीय हो, पाए वह सम्मान।
उसी एक को, स्नेह जताओ, गले लगाओ, रखना दिल से ध्यान।।
102 …. छंद रत्नाकर
8/8/8/8/11
जिसको प्रिय है,अच्छी संगति, वह आतुर हो, चल देता है, पाने को सत्संग।
मन उत्साहित, मधु आच्छादित, हृदय सुवासित, वदन चहकता, नृत्य करे हर अंग।।
साधु समाना, वृत्ति मनोरम, भावुक अनुपम, सहज दिव्यमय, उर में है उत्साह।।
चल देता है, छोड़ गृहस्थी, सारी माया, सब परिजन को, सिर्फ शुभद की चाह।।
बिन शंका के, भर अंका में, शांति भाव को, स्नेह साज को, वह देखे शिव लोक।
सत्य समर्पित, तन मन अर्पित, ध्यान सुसज्जित, ज्ञान पान को, जाता बना अशोक।।
सदा तरंगित, सहज उमंगित, हेतु समुन्नति, शिव गति पाना, है उसका प्रिय ध्येय।
ईश कृपा से, जन्म जन्म की, पुण्य कथा से, भाग्य विधाता, को जाता यह श्रेय।।
103…. मनहरण घनाक्षरी (वर्णिक)
8/8/8/7
अंतिम वर्ण दीर्घ
क्रांति दूत अग्र दूत, वीर धीर हीर पूत,
जागरूक है पथिक , शीश को झुकाइए।
काल को बेकार जान, मृत्यु को बेजान मान,
दृढ़ प्रतिज्ञ शूर को, नित्य नव्य चाहिए।
सोच साफ स्वच्छ होत, धारदार वक्ष पोत,
शान है सुडौलदार, मान को बढ़ाइए।
कथ्य कर्म एक सम, साध्य साधना सुगम,
नवीनता के जोश में, देव गीत गाइए।
कुछ अता पता नहीं, मौन कृत्य शुभ सही,
धैर्य धर्म नीति भव्य, भाव को जगाइए।
ज्ञानवान बुद्धिमान, प्राणवान भग्यमान,
कर्मयोग अस्त्र शस्त्र, को सदा मनाइए।
उमंग ही उमंग है, चटकदार रंग है,
वीर बढ़ रहा सदा, आप साथ आइए।
104…. मनहरण घनाक्षरी
नमामि मातृ शारदे, प्रणम्य दिव्य ज्ञानदे, भजामि हंसवाहिनी, नित्य वंदनीय मां।
चिंतना प्रकांड मात, वंदना सदा प्रभात, रोम रोम में निवास, स्तुत्य पूजनीय मां।
दीर्घ सुक्ष्म प्रेम गात, नव्य भव्य सुप्रभात, मीठ मीठ बोल भाष, सुविचारणीय मां।
साधना अनंत बार, कामना सुधा सवार, शब्द ब्रह्म का प्रचार, ग्रंथ लेखनीय मां।
शुद्ध भाव निर्मला, असीम प्यार शीतला, वेद पूर्व आदि अंत, शास्त्र साधनीय मां।
सदा कृपा प्रदायिनी, सत विवेक गामिनी, श्वेत वस्त्र धारिणी ही, ग्राह्य सोचनीय मां।
ओम नाम रूप जान, सर्व विज्ञ सिद्ध मान, तंत्र मंत्र यंत्र ध्यान, पर्व वांछनीय मां।
105….. छंद रत्नाकर
8/8/8/8/8
अतिशय मुश्किल, यह लगता है, प्यार किसी का, सच में पाना, जगह बनाना।
सभी मतलबी, कोई अपना, यहां नहीं है, इस दुनिया को, सच में जाना।।
सब स्स्वारथ में, गिरे हुए हैं, अंधे लगते, भौतिकवादी, बात सही है।
सबकी चाहत, केवल पैसा, और नहीं कुछ, धन ही ईश्वर, स्नेह नहीं है।।
सावधान सब, मन अभिमानी, है चालाकी, हृदयशून्यता, नहिं भावुकता।
सरिता सूखी, कविता रूखी, शब्द जाल है, भाव नहीं है, अधिक दीनता।।
यहां उचक्के, घूमा करते, अर्थ पिपासू, धन को केवल, चूमा करते।
हृदय नदारद, क्रूर पेशियाँ, नित्य भयानक, नाग राज बस, घूमा करते।।
दौलत है पर, यहाँ दरिंदे, नहीं परिंदे, जिसकी वाणी, में कोमलता ।
प्यार तुच्छ अति, अवसरवादी, नहिं मधुवादी, नहीं मधुरता।।
मन दूषित है, दुख पोषित है, यहां प्रदर्शन, विचलित दर्शन, प्रेम नहीं है।
आतुर तन में,भोग वासना, केवल दिखता, देह प्रदर्शन, सर्व सही है।।
106…. छंद प्रभाकर
8/8/8/8/8/8
छंद प्रभाकर, दिव्य सुधाकर, सत्य सरासर, जगत उजागर, रहता आकर, ज्योति जलाता।
आभा प्यारी, सदा दुलारी, अति मनहारी, खुश नर नारी, सकल जगत यह, मधु सुख पाता।।
कोरा कागज, रंग बिरंगा, बन जाता है, जब जब उस पर, सूर्य चमकता, कविता लिखता।
किरण विखेरत, चिंतन सेवत, घूमा करता, चलता रहता, आत्म परिधि पर, कवि बन दिखता।।
जग का दाता, पूज्य विधाता, बहुत सरल है, गर्म तरल है, अति जोशीला, काव्यकार है।
हर रस पीता, और पिलाता, सबसे नाता, पाठ पढ़ाता, सदा रसीला, कलाकार है।।
कवि कर्मी है, बहु धर्मी है, अमृत सागर, उत्तम आखर, प्रति क्षण दिनकर, रचनामृत है।
लोकातीता, आदि अतीता, सदा अनंता, जिमि हनुमंता, कहता मोहक, वचनामृत है।।
107…. मनहरण घनाक्षरी
प्यार में मलाल कहां,
दिव्यता की गंध होत,
स्वर्ग शीर्ष विंदु जान,
देव रत्न पाइए।
मिला जिसे खुशी मिली,
न मिले तो मन दुखी,
सत्य राह डोर थाम,
प्यार आजमाइए।
पंथ यह विनम्रता,
प्रधान भाव दिव्यता,
सभ्यता की नींव डाल,
प्यार को जगाइए।
काल चक्र घूम रहा,
न कभी ये थम रहा,
वक्त जब पुकारता,
प्यार पास जाइए।
प्यार नित पुकारता,
जांच कर विचारता,
पात्र बन सदा सुखी,
प्रीति गीत गाइए
प्यार शिव अनंत है,
विवादहीन संत है,
लो लगा इसे हृदय,
पीजिए पिलाइए।
108…. छंद रत्नाकर
8/8/8/8/8/8/11
जब जब आती, याद तुम्हारी, हृदय धड़कता, नयन फड़कता, मन में विचलन, तेरा चिंतन, मुखड़ा अधिक उदास।
बहुत सताते, तुम नहिं आते, रात जगाते, सदा रुलाते, स्वप्न दिखाते, याद दिलाते, किंतु न रहते पास।।
प्यारे मन में, सदा बसे हो, उर सरसे हो, अति काबिल हो, सुंदर दिल हो, प्रीति अखिल हो, आ जाओ साकार।
निराकार मत, देह सहित तुम, आओ सचमुच, बात सुनो कुछ, दिखलाओ बस, रूप निराला, तरस रहा है प्यार।।
तू है मंजिल, सच्चा मंदिर, मोहक प्रतिमा, अनुपम महिमा, सादा जीवन, उन्नत तन मन, शिवमय प्रेम प्रकाश।
हे मन नीरज, दो अब धीरज, बन करुणालय, सिंधु दयालय, प्रिय रस धारा, नभ का तारा, करना नहीं निराश।।
109….. डॉक्टर रामबली मिश्र की कुंडलिया
जिसका सुथरा साफ मन, निर्मल पावन भाव।
वह अमृत समतुल्य हो, धोता सबका घाव।।
धोता सबका घाव, नेह से सींचत सबको।
देता दुख में साथ, सुखी चाहत है जग को।।
कहें मिश्र कविराय, जगत जानत है उसका।
मोहक क्रियाकलाप, सदा सुखकारी जिसका।।
सारा जीवन पुण्य में, जिसका होता पास।
बड़भागी प्रिय पूज्य वह, सम्मानित अहसास।
सम्मानित अहसास, कराता मानव पावन।
हरित क्रांति का स्रोत, बुलाता मोहक सावन।।
कहें मिश्र कविराय, कर्म है जिसका प्यारा।
वह विशिष्ट धनवान, दान पाता जग सारा।।
प्यारा मानुष है वही, जो करता सत्कर्म।
सुंदरता के रूप का, यही सत्य है मर्म।।
यही सत्य है मर्म, कर्म की गति को जानो।
अत्युत्त व्यवहार, सुखद मानो पहचानो।।
कहें मिश्र कविराय, बनो चमकीला तारा।
रख शुभ चिंतन वृत्ति, अगर बनना है प्यारा।।
110…. छंद प्रभाकर
जो मन कहता, यदि वह करता, तो वह बनता, वैसा ही वह, जैसा मन चह, दिखता रह रह।
बनता ढह ढह, रुकता बह बह, लगता चह चह, सुंदर सह सह, चमकत गह गह, महके मह मह।।
आभा मोहक, उत्तम बोधक, मधु भव शोधक, अतिशय रोचक, संकट मोचक, सबका पोषक।
क्रिया कर्म में, छिपा हुआ है, इक है कर्ता, जैसा करता, वैसा दिखता, खुद उद्घोषक।।
कथनी करनी, के अंतर को, शून्य करोगे, नित्य बढ़ोगे, चलते रहना, कभी न थकना।
धाम निकट है, राह विकट है, पंथ प्रेम हो, जग समेट लो, कर्मनिष्ठ बन, कभी न रुकना।।