कफ़न ओढ़ने को मजबूर है प्रतिभा
भारतीय जन नाट्य संघ की पत्रिका में प्रकाशित
प्रधान सम्पादक की कलम से………..
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कफ़न ओढ़ने को मजबूर है प्रतिभा
जँहा एक ओर भारतीय जन नाट्य संघ इप्टा की बाल एवं युवा रंगकर्मी नाट्य कार्यशाला 2014 में निखारे गए साहित्य के नक्षत्रों से सुशोभित पत्रिका “शुरुआत” आपको सौपते हुये अत्याधिक प्रसन्नता हो रही है वहीँ दूसरी ओर संसाधनों की कमी एवं समाज द्वारा नौकरी दौड़ को विशेष प्राथिमकता देना बार बार जहन में एक अहम सवाल को जन्म देता नजर आ रहा है कि 21 वीं सदी में क्या सफल जीवन जीने के लिये सिर्फ किताबी ज्ञान की आवश्यकता है, सामाजिक ज्ञान का नहीँ? यदि मै इस सवाल का हल खोजने की कोशिश करता हूँ तो अपने आप को सिर्फ इसी निष्कर्ष पर खड़ा पाता हूँ कि किताबी ज्ञान के साथ- साथ सामाजिक ज्ञान भी अति आवश्यक है। सम्भवतः मेरे इस निष्कर्ष को हाल ही में हुये शिक्षक विधायक के चुनाव में मतगणना के बाद सामने आई असलियत भी समर्थन करती हुई दिखाई दे रही है। आपके संज्ञान में होगा कि शिक्षक विधायक निर्वाचित करने के लिये स्नातक पास मतदाता ही मतदान करता है। इस चुनाव में सिर्फ पढे लिखे लोगों द्वारा ही मतदान करने के बाबजूद हजारो की संख्या में अमान्य मत निकलना शायद हमारे समाज के लिये शर्म की बात है। वस्तुतः जिन शिक्षित लोगों के मत अमान्य निकले उन्हें शिक्षित गधा ही कहा जा सकता है।
आधुनिक अभिभावकों की भेड़ चाल मानसिकता के कारण नई पीढ़ी किताबी कीड़ा जैसा कफ़न ओढ़ने को मजबूर है। दस अभिभावकों में से निश्चित ही ऐसे होंगे जो अपनी सन्तानों को डॉक्टर,इंजीनियर,शिक्षक आदि बनाने का ख़्वाब देख रहे होंगे। आज बुजुर्गो की इस बात पर विश्वास नही होता कि एक जमाना ऐसा भी था जब सरकारी नौकरी लोगों के पीछे भागा करती थी आज लोग नौकरी के पीछे सिर्फ भागने ही नहीँ लगे है बल्कि उनकी आखिरी मंजिल सरकारी नौकरी ही बनती नजर आ रही है।
आधुनिक समय में हमारा समाज देश को एक मालिक देने के बजाय एक नौकर देने में ज्यादा ख़ुशी महसूस करता है। बिडम्बना यह भी है कि प्रतिभावान युवा यदि किसी कलात्मक क्षेत्र में अपना कैरियर बनाना चाहता है तो उसे समाज व परिवार से मिली तरह तरह की आधारहीन प्रतिक्रियाओं के दबाब में आकर परिवार व समाज के खिलाफ कार्य करने को मजबूर होना पड़ता है। अब तक के प्राप्त अनुभवों के आधार पर मुझे लगता है कि नई पीढ़ी को अपनी प्रतिभा को निखारने के लिये सर्वप्रथम संघर्ष अपने परिवार से ही करना पड़ता है। इसी संघर्ष के साथ इप्टा रंगकर्मियों की रचनाओं से सुशोभित पत्रिका “शुरुआत” निश्चित ही जनचेतना के सशक्त माध्यम के रूप में उभर कर आएगी इसी विश्वास के साथ उड़ चला
………..पारस “पंख”
(पारसमणि अग्रवाल)