क्षितिज पर उदित एक सहर तक, पाँवों को लेकर जाना है,
क्षितिज पर उदित एक सहर तक, पाँवों को लेकर जाना है,
भटकाव भरी गलियों में, भटक कर राहों को नयी पाना है।
अन्धकार की तृष्णा में बेसुध हो पड़े थे, मन की रौशनी को जगाना है,
भीड़ में अदृश्य हुए व्यक्तित्व को, पहचान से उसकी मिलाना है।
नाव जो लहरों में उलझी है, उसे वैतरणी पार कराना है,
मृत्यु के स्पर्श से पूर्व, एक जीवन जी कर दिखाना है।
बातों की रिक्तता से सम्बन्ध नहीं, अब कर्म से ताना – बाना है,
आडम्बरों को पीछे छोड़कर, परम-स्व में खुद को बसाना है।
पीड़ा का जंगल जो चीख रहा, उस गूंज से बच कर दिखाना है,
उदासीन होते निर्मल मन की, सवेदनाओं को भी बचाना है।
शून्यता के गहन भँवर में गिरे हैं, जागृति की बूँद को ढूंढ कर लाना है,
संचित विचारों की सीलन फैली है, गुनगुनी धुप में जिसे सुखाना है।
एक द्वन्द में मस्तिष्क रुग्ण पड़ा है, विजय की संजीवनी तोड़ कर लाना है,
शब्द बिखरकर बेअर्थ गिरे हैं, अब एक वाक्य नया सजाना है।
वो पहिया जो रण में धंसा है, उसे रथ की शक्ति को जगाना है,
एक सूक्ष्म कण के विस्तार को, नव परिभाषित कर के दिखाना है।
जो क्षंद है मुझमें-तुझमें भी, उसे जीवन के लय पर सजाना है,
जिस रात की कभी भोर ना हुई, उस नभ को सूरज से मिलाना है।