क्षितिज के पार है मंजिल
क्षितिज पार है मंजिल
चौराहे पर आज जब
आकर थम सी गई है जिंदगी
फिर हम तलाशते हैं
वो नामुमकिन रास्ते
फिर लौटने को
“उस समय” में
गुँजाइश लौटने की तो
गोया बिलकुल ही नहीं है
बस बंद कर अपनी आँखें
“उन्हीं” सुखद यादों को देखते हैं
जीते हैं कुछ पल यूँ ही सुख के
चौराहे के मील का पत्थर
सिर्फ इतना बता रहा है
ये तो बस पड़ाव है
चलना ही नियति है मुसाफिर
क्षितिज के पार है वो मंजिल
सफर जहां का तय है
~ अतुल “कृष्ण”