क्षणिकायें
क्षणिकायें
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हम पढ़ नहीं पाये
उसके चेहरे पर
लिखी थी कोई संवेदना
वक़्त की स्याही थी
उम्र के थे पन्ने
न जाने किसने
लिख डाली
चेहरे पर रेखाओं
की गहरी होती वेदना
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राजेश’ललित’
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आओ पास बैठो
हो कुछ गुफ्तगु
आँखों की पलक
उठाओ ज़रा
इनकी पलकें
कुछ कह रही
हम भी सुनें जरा
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राजेश’ललित’
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नफ़रतों के जंगल में
प्रेम अग्न हुआ
मन हुलसा
तन झुलसा
राख में से निकलेगा
वो प्रेम का नवांकुर
कभी तो देखना तुम