क्रोध से भरा है हवा का जिस्म (१)
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उर्ध्व उठकर भी
हीनता के बोध से दब गयी हवा
अट्टालिकाओं के शीर्ष पर
नृत्य करती हुई,
करती हुई प्रहार
चुड़ैल के क्रोध से भरी है.
नीचे अट्टालिकाओं के गह्वर में
खंड हुई प्रतिमाएं
अपने अतीत पर विस्मित होती हुई
हर्षित हैं.
शव भी जग पड़ने की चेष्टा करता हुआ
अपने पन्नों को
खोलने को आतुर है.
वृक्ष,लता और पौधे
हवा के क्रोध से भयभीत
धरा में धंस जाने की प्रार्थना करता हुआ
शाकाहारी जीवों की तरह निरीह
टकटकी लगाये
कभी कृष्ण कभी राम नाम के आगे-पीछे
ॐकार लगाता हुआ
कभी सागर कभी गगन को
श्राप देने हेतु संकल्पबद्ध है.
मनुष्य ने विकास को व्यवसाय की तरह
तौला है.
इसलिए हवा का जिस्म क्रोध से खौला है.
मनुष्य ने आग को शक्ति समझ
अपने कर्म और देह में घोला है.
इसलिए हवा ने अपना तृतीय नेत्र
शिव की तरह खोला है.
शहर के चौराहे पर
गाँव और जँगल के बीच की पगडंडी पर
बबंडर उड़ाता समुन्दर
अर्द्ध रात्रि के नीरव अंधकार में
अपना चेहरा खोलकर खुद को
निहारता है और सौन्दर्य की परिभाषा
दुहराता है.
कितना कचरा!
जितना दिया उसे लौटाने आया है यह समुन्दर.
पुष्प से सुसज्जित खंड हुई प्रतिमाओं के
गरिमामय स्वच्छता को
दुहराने आया है यह समुन्दर.
हवा के प्रवाह पर.
हवा समुद्र के भार से दबा,कुचला सा
किस युग तक रहता!
इसलिए
क्रोध से भरा है हवा का जिस्म.
पर्वत-शिखर तक उपर उठकर
गर्व से छाती फुलाए
गौरव की अनुभूति करते और कराते
जहर के दंश और अंश देते मनुष्य से
विरोध करने हेतु क्रोधित है हवा का जिस्म.
नगरनुमा शहरों के औद्योगिक चिमनियों से
रंज से सराबोर मन:स्थिति ले टकराती हवा
कहकर बहुत कुछ शोर मचाती चली जाती हवा
मनुष्य, इसलिए सम्पूर्ण जीव-जाति का
शत्रु हो जाने पर आमदा हुई हवा
लौट तो जाती है पर,अधिक हो जाने को उग्र.
आनेवाले वर्ष गये हुए वर्षों पर बीते ह्श्रों से डरे हैं
किसी कन्दरा या गुफा में घुस जाने की जिद पर अड़े हैं.
नीतियाँ और नीयत, निकलते रहे क्यों सब सड़े हैं?
अतीत में इस हवा ने ऐसे असंख्य मुर्दे गड़े हैं.
अपने ही देह के दुर्गंधित हवा से ये हवाएँ करती हैं
आक् छि: थू.
क्रोध ही नहीं दुर्गन्ध से भी जिस्म हवा का
हो रहा है त्यूं.
सहसा उतावली सी ताक-झांक करती हुई
रेल के डिब्बे में,रमणियों के शयन-कक्षों में
खुशमिजाज होती हुई कर रही घुसपैठ हवा
हो गयी थी ओझल सी.
शीतल सुवासित हवा गाती इठलाती हवा
आई जब बाहर हवा
हो गई फिर बोझल सी.
पेड़ के पत्तों को कह गई कि आती हूँ.
चिड़ियों के बच्चों को कह गई मैं आउंगी
हाथ ये गंदे हैं धो-पोंछ आउंगी
अंक में उठाऊँगी किस्से सुनाउंगी.
सागर के लहरों में हाथ डाल रोई वह
वादे की यादों में अपराधिन सी खोई वह.
सागर अस्वच्छ था, मैल से श्रृंगारित था.
सागर का जल सारा श्राप से श्रापित था.
विद्वान हवा, सूरज से सीखकर आया है
मन्त्रों से करेगा स्वच्छ सारी अस्वच्छता.
श्राप से करेगा पैदा वरदान की दक्षता.
उसने सीखा है वर्षा का मन्त्र,अग्नि का मन्त्र.
किन्तु, अभी तो
क्रोध से भरा है हवा का
यहाँ-वहाँ दग्ध जिस्म.
भीत से टकराकर लौटी है हवा, पुन: टकराने.
गगन पर श्वेत,श्याम मेघों के रंगों पर
यहाँ धरा पर चलता रहता है तीव्र बहस.
मेघों के रंग पर बहस जब रुकेगी
हवा,भीत से फिर टकराएगी.
दंड का, मनुष्य लोक में ही नहीं
अपितु ब्रह्मांड में ही अनेक प्रावधान है.
बिक्षुब्ध हवा, क्या पता ………..
जँगल से गुजरती हवा ठहरी
हर कण से हर क्षण में बतियाती रही.
उसके दु:ख और पीड़ा में अपनी व्यथा
देखती,सुनती और खोजती रही.
हवा कोई नरेश तो थी नहीं कि
उन पीड़ाओं और दु:खों में अपना सुख सहलाती.
दरख्तों के दु:ख अत्यंत बड़े थे
नीचे धरती सूखी और कड़ी थी
उपर,वह जीवात्मा नहीं सामग्री थी.
सुबह सैर को निकले मनुष्य
स्याह काले अर्द्ध-रात्रि के गहन अंधकार में जैसे
उलझ गये थे
और रात पर्वतों के शिखर सा भयावह था.
हवा स्वयं में जन्मे पर्वतों को चीरने हेतु
निहत्थे भी सजग था.
चिमनियों से उठते गाढ़े धुएँ
पिघलते पत्थरों से रिसते रसायन
विखंडित होते परमाणुओं से उत्सर्जित अदृश्य चिंगारियां
गति की प्रतिद्वन्द्विता से उत्पन्न वेगवान तरंगें
मनुष्य के अनियोजित निष्पादन से उठते सड़ांध.
अग्नि,वर्षा और प्रवाह से पराजित करने
हवा
मन्त्रों से तन्त्र गढ़ने में तत्पर था.
सहसा तभी शोर मचाती और चिल्लाती हुई हवा
हो गई स्थिर और शांत.
नभ में पक्षियों का एक महान झुण्ड
सूरज को ढंक ले ऐसी विशालता.
महासागरों पर अनवरत उड़ते हुए
महाद्वीपों के सैर पर अग्रसर था.
स्यात् भोजन नहीं वंश सृष्टि के लिए.
उसे सम्मान देना
ब्रह्मांड के हर रचना का वैभव था.
हवा ने भी.
ये हवा दनु संतानों के संहार को पुनर्जीवित करने को दृढ़.
मनुष्य को सांत्वना नहीं प्रतिफल देने को कटिबद्ध.
अब समुद्र-मंथन से अमृत नहीं निकलेगा.
अब आत्म-मंथन मात्र से पौष्टिक घृत निकलेगा.
मानव ने अमृत नकारा है
हवा को बारूद और रसायनों से मारा है.
समुद्र के गह्वर में हवा ने विष का दंश झेला है.
सागरीय रचनाएँ अस्तित्व के युद्ध में
पड़ गया लगता अकेला है.
हवा के घर के बाहर सूनापन लगा है गहराने.
ध्वनि ने मानदंडों को तोड़ा
इसलिए कान के पर्दे बहराने.
दूब पर बिछी हुई चादर के उपर
रात बरसा गई ओसों के साथ काले,गंदले कण.
दूब पर दुबारा ओस नहीं बन पाए मोती.
सूरज के किरणों को पी लिया बूंदों ने
परावर्तित न हुए, न बने चमकते सुनहरे संगमरमर.
हवा के भाषा के सारे शब्द क्षुब्ध हैं.
हवा क्रोध में है, नहीं सुनाएगी हवा अब कोई संगीत.
रहस्य से कोई तो उठाओ पर्दा
सृष्टि के रचनाकार का मन बदल तो नहीं गया
मेरा मन भग्न है.
अभिलाषा जीने की लेकर जन्मा था वनस्पति जगत
मरने की तैयारी करता हुआ कर रहा
अपना-अपना तन नग्न है.
सूर्य किरण मद्धम होकर हो जायेगा लुप्त.
यूँ ही अपना उच्छिष्ट उछालते रहे हवा के मुँह पर
और हवा मलता रहा उसे अपने जिस्म पर.
डरो,क्रोध में है हवा का जिस्म.
तिलस्म होने को नहीं है
जेबें अब खाली हैं और ‘दीये का जिन्न’ हो गया खिन्न है.
क्षत-विक्षत होने से बचाने
मनु नही है आनेवाला लेकर अब ब्रह्मा का कोई आदेश.
सत्य को जितना झुठलाना था,झुठलाके गया वह.
मनुष्य को औरत और आदमी में बाँटकर तथा
आदमी और औरत को वृत्तियों में कुंठित कर गया वह.
प्रतिभाएं सुबकती रही और
अबुद्ध से शासित होने को शापित रही.
क्रोध में है हवा का जिस्म.
क्रोध से विवेक टूटे,विवेक टूटने से भ्रम पैदा हो,भ्रम पैदा होने से प्रतिभा नष्ट हो
प्रतिभा नष्ट होने से हवा उदास हो जाये या सन्यास अपना ले
इसके पूर्व कर्मभूमि पर कर्मयोग की प्रतिज्ञा दिलाओ हवा को.
किन्तु, हे मनुष्य, तुम कृष्ण बनने की प्रक्रिया तो प्रारंभ करो.
जब-जब कर्तव्य अधर्म करे
तुम्हारा
कृष्ण होने का संकल्प था.
उसे दुहराओ.
क्रोध से भरा है हवा का जिस्म.
हवा के जिस्म को क्रोध के योगाग्नि से बचाओ.
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