क्यो नकाब लगाती
” क्यो नकाब लगाती हो।”
सफर पर जाने वाली मुसाफिर तु
आपनी सुरत पर क्यों नकाल लगाती है।
क्यो घृणित कार्य करने वाली शातिर
अपनी सुरत पर उठने वाले जवाब को सवाल से बचाती हो
. तुम अपनी सुरत वेगो नकाब लगाती हो
अपनी सुरत पर लगे दाग को छिपाती हो
पापड़ हमने भी बेले है।
बहन समझ साथ में भी खेले हैं l
“हम भी नकाब रखते है अपनी सुरत पर
रात की अंधेरी भोर में भी अकेले है।.
. जरूरत की वारदात से छिपने खातिर नकाब लगाते है।
भरी महफिल में तुम किस खातिर नकाब लगाती हो
स्वर्ग की अप्सरा से तेरा ना नाता है।
भाव खाकर, तुम्हें गुमान करना आता है
झुठी शैखिया लगाकर अपनी हंसी से हम भोली सुरत को
लूट उडान भरना भाता है
तेरे मन के हर सवाल का सही जवाब बताते है।
पर तुम हम मगरमच्छ के बीच में रहकर यह नकाब क्यों
लगाती हो
हाथ में रखा इस पागल का पत्थर है
रखा नकाब तेरे लिवाज का अस्तर है
क्यो इन्सानो की महक से तुम्हे घृणा रख.
कहती हो मेरा नकाब हां अन्दर है
तुम हर बात को बवाल बनाती है !
फिर यहनकाब फिर तुम क्यो नकाब लगाती हो।.
हमारी जेब में आज ना उधारी है
इसी खातिर इज्जत हमारी आज हां उत्तारी है।
प्रेम भरी सम्मान भरी नजरो के हम ना तेरे प्रेम पुजारी है।
‘हम तो तेरे सवाल का जवाब जानते है
पर तुम क्यो सुरत पर क नकाब लगाती हो