“क्यों मैं एक लड़की हुयी?”
जन्म से मैं एक लड़की हुयी,
जमाना है भड़की हुयी।
घर में मेरे कड़की हुयी,
सोचूँ फिर क्यों मैं एक लड़की हुयी?
अकड़ सारी उसकी (पिता) धीमी हुयी,
आँख भी उसकी भीनी-भीनी हुयी।
बाँयी आँख भी है उसकी फड़की,
सोचूँ फिर क्यों मैं एक लड़की हुयी?
दोष उसका कुछ नहीं कोसता है वो किस्मत,
जुगाड़ अगर लग जाता तो भगवान् को भी वो देता रिश्वत।
समाज के इस फेर में उसकी बुद्धि भी है अड़की हुयी,
सोचूँ फिर क्यों मैं एक लड़की हुयी?
बेटी हुयी कहने से सिर झुक जाता है,
बोलते-बोलते कहीं वो रुक जाता है।
मातम ऐसा फैलता जैसे कोई मरकी हुयी,
सोचूँ फिर क्यों मैं एक लड़की हुयी?
अनचाही हूँ मैं मेरे लिए तो वो तैयार नहीं,
ममता-स्नेह बाँटे हमने और मेरे लिए ही प्यार नहीं।
मेरे आहट से ही दलान की दिवार भी है दरकी हुयी,
सोचूँ फिर क्यों मैं एक लड़की हुयी?
जननी हूँ मैं, आकृति हूँ मैं,
पालक हूँ मैं, प्रकृति हूँ मैं।
सबल हूँ मैं, आधार हूँ मैं,
सूरत हूँ मैं, आकार हूँ मैं।
मेरे बिना तेरा कोई अस्तित्व नहीं,
फिर मेरे लिए ही तेरा कोई दायित्व नहीं।
सारी दुनियाँ का दिमाग क्यों है सरकी हुयी?
फिर क्यों सोचूँ मैं, कि मैं एक लड़की हुयी?
फिर क्यों सोचूँ मैं, कि मैं एक लड़की हुयी?
✍️हेमंत पराशर✍️