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29 Jan 2024 · 1 min read

क्यों अब हम नए बन जाए?

क्यों न अब हम नये बन जाएँ?
त्यागे याग,पुरा’णी’बातें,
रियाज-मिज़ाज, बुनियादी यादें ।
हाँ-हाँ उनमें, है बर्ताव कटु,
बेहिसाब आँसू , बदनसीब ‘सकू*,
इन्हें विष मानकर ,छोड़ते जाएं।
क्यों न अब हम नये बन जाएँ?

पुरखे रखकर ,क्या गये ?
जिनसे कल हो, बेहतर हमारा,
कुछ पोथियाँ, कथा-नीति,
आचार-स्वास्थ्य-शिक्षा की,
श्रद्धा-आस्था, समर्पण-मानवता,
सुखी संसार ‘key’ ?
इन्हें त्यागें, तर्क बढायें,
भेद – व्यूह रचायें,
क्यों न अब हम नये बन जाएँ?

रिश्ते तोड़ें, बीज बोए,
बिखेरते-बिलखते परिवार की,
धर्म कर्म तो शून्य, भ्रम बिखरायें,
जाति-पंथ-ग्रंथ- बिखराव की,
ये सब भाये, जानकार जतायें,
क्यों न अब हम नये बन जाएँ?

वृक्ष न पालें, फल तो खाएं,
बूढों को ढोना कौन ही चाहे?
तर्क तराजू से तोले हर बोल,
तुच्छ क्षमताओं से सराबोर,
इन सबको मानें,
अडें-लडें ,
बढ़ाए असमानताएं ,
क्यों न अब हम नये बन जाएँ?

पुरखे ये सब रख न पाये,
मंदबुद्धि थे शायद ,
तर्क न भाये,
धर्म-कर्म व्यर्थ बढाकर,
तक़रार क्यों न सिखाये?
आओ जड को राख बनायें,
मधुर सुन्दर फल खूब खायें,
क्यों न अब नये बन जाएँ??
संकेत शब्द : – सकू-चक्षु (नेत्र),key – चाभी

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