क्यूँ न कलम उठाऊँ मैं
देते मुझको दर्द रोज आजकल उस दर्द को कैसे पी जाऊँ मैं
वो कहते मेरे देश को गंदा क्यूं न कलम उठाऊं मैं।
जहर उगलते सुबह शाम वो नित नई नई बातों से
चोट पहुंचती दिल को मेरे उनके इन आघातों से।
रहकर इसी देश में वो नमक देश का खाते हैं
करते बुरा मेरे भारत की बाहर का गुण गाते हैं।
कर रहे खोखला देश को मेरे क्यूं चुप रह जाऊं मैं——–
कभी धर्म कभी जातिवाद के नाम पर पंगा वो करवाते हैं
डर लगने लगा है यहाँ रहने में कहकर वो बतियाते हैं।
स्वार्थ के चलते देश गौण करने में करते कोई शर्म नहीं
भूले मातृभूमि के अहसानो को जो उनका कोई धर्म नहीं।
देख देख इनकी करतूतों को कैसे खुश रह पाऊं मैं——-
मैं उसका ही विरोधी हूँ जो भी देश विरोधी है
दुश्मन है इस देश का जिसने मर्यादा अपनी खो दी है।
वंदे मातरम बोलने में उनको बहुत ही परेशानी है
हिंदुस्तान किसी के बाप का है कहकर करते वो नादानी है।
मातृभूमि से करो तुम प्यार कहकर यही समझाऊँ मैं’——-