क्यूँ तू हताश रे मानव
क्यूँ तू हताश रे मानव
जीवन रथ के दो हैं चक्र और एक दूजे के हैं पूरक,
तुम प्रज्वलित जीवनदीप मैं बाती जिजीविषा सूचक।
सृष्टि के दो अंग अभिन्न तुम पुरुष और मैं नारी हूँ,
तुम जीवन प्रतीक दीपक हो मैं वर्तिका तुम्हारी हूँ।
प्रकृति के अभिराम पटल पर जीवन चित्र उकेरेंगे,
कूँची बन दूँ सौम्य स्पर्श सतरंगी वर्ण बिखेरेंगे।
इंद्रधनुषीय अप्रतिम रंगरंजित मैं तूलिका रतनारी हूँ,
तुम जीवन प्रतीक दीपक हो मैं वर्तिका तुम्हारी हूँ।
तेरे मग में तनिक विघ्न हो अग्नि शलाका बन जाऊँ,
तू रण दुंदुभि जहाँ बजा दे मैं विजय पताका फहराऊँ।
तू नटनागर कान्हा मेरा मैं राधा बलिहारी हूँ,
तुम जीवन प्रतीक दीपक हो मैं वर्तिका तुम्हारी हूँ।
तुम वेदांती साधक बनकर गाओ वेद ऋचा गाथाएँ,
जप-तप पुण्य कर्म के बल पर मिटे अज्ञान तिमिर बाधाएँ ।
तुम वेदाध्यायी करो साधना मैं वेदिका
तुम्हारी हूँ,
तुम जीवन प्रतीक दीपक हो मैं वर्तिका तुम्हारी हूँ।
जग है अग्निपथ निर्भय विचरो मैं छाया बन साथ चली,
निज आँचल कंटक समेट तव पथ में सजाई कली-कली।
तुम बन पथिक निर्विघ्न चलो जिस पर वह वीथिका न्यारी हूँ,
तुम जीवन प्रतीक दीपक हो मैं वर्तिका तुम्हारी हूँ।
रंजना माथुर
अजमेर राजस्थान
©
(स्व प्रमाणपत्र :-
मैं रंजना माथुर स्व प्रमाणित करती हूँ कि उक्त रचना मेरी स्वरचित, मौलिक व अप्रकाशित रचना है।)