क्या है तुम में
क्या है तुम में जो पाने को मैं पागल सा हो जाता हूं…
तुम्हें देखकर ना जाने क्यूं अपने से ही खो जाता हूं…
भीगी पलकों के अंतर से नयनों की कुछ मौन शरारत
जिसे छुपाने में असफल उठकर नयन पुनः गिर जाते,
जैसे विरहिन बिजली से श्यामल मेघ निमंत्रण पाते,
मुझे पता है तेरी वांछें गुरु द्रोण का चक्रव्यूह है..
फिर भी में इस मादिराव्यूह में नित पीकर के से जाता हूं…
क्या है तुम में जो पाने को मैं पागल सा हो जाता हूं…
पतले पतले रक्त लवों पर सतत नेसर्गिक होती थिरकन
जैसे प्रातः कोई कुमुदनी क्षण में ही खिलने वाली हो,
लोक हया से सहमी सहमी होठों से कहने में अक्षम
पर हर बात बिना शब्दों के थिरकन ने ही कह डाली हो,
मालूम है ये एक निमंत्रण मधुशाला से..
जाता हूं जी भर पिता हूं फिर भी प्यासा रह जाता हूं…
क्या है तुम में जो पाने को मैं पागल सा हो जाता हूं…
वक्षशिखर हों जैसे हिमगिरि नीलांबर छूने उन्नत है,
लगता है दिल की धड़कन से महाप्रलय भी संभावित है,
इन शिखरों की उथल पुथल में
और प्रकृति के इस अंचल में
मुझे पता है विकल श्वान सी मौत सुलभ है..
फिर भी इन में जानबूझकर सर रखता हूं
सुधि खोता हूं मर जाता हूं, और मर मर के जी जाता हूं…
क्या है तुम में जो पाने को मैं पागल सा हो जाता हूं…
भारतेंद्र शर्मा