क्या समझें हम !
क्या समझें हम ,
मेरे लिए तुम्हारे दिल से तुम्हारी दिमाग़ की उस लड़ाई को..,
मेरे साथ ना होने पर तुम्हारी उस तन्हाई को..!
क्या नाम दूँ में, उन शर्दी की रातों में तुम्हारी उस गर्म सी रजाई को !
क्या समझूं में , जिसमें तुम डूब जाती हो अक्सर, मेरी उन सासों की गहराई को .!
पता है तुम्हें,
मैंने देखा है अक्सर तेरी आँखों की बारिशों में मुझे खोने का डर,, .
तो फिर रह क्यू नहीं जाती बन के तुम”मेरा हमसफ़र” !.
क्या समझें हम,
जो बस मुझे देख के आती है तुम्हारी उस मुस्कान को, .
तुम्हारे उस व्रत,करवाचौथ और रमजान को, !
क्या समझें हम, मुझसे मिलने की तुम्हारी उस बेताबी को,,
क्या नाम दूँ में, क्लास बंक करने के बाद की हमारी उस आजादी को !
पता है तुम्हें,
मैंने देखा है अक्सर तेरे चेहरे पे मेरे जाने का गम.,
तो फिर कह क्यू नहीं देती की तुम “बनना चाहती हो मेरा हमदम “!
क्या समझें हम,
तेरी बातों मैं मेरी ज़िक्र को,
हर लम्हा मेरे लिए तुम्हारे उस फिक्र को !
क्या समझूँ मैं, मेरे लिए तुम्हारे उन ख़्यालातों को,
क्या नाम दूँ मैं, हमारे मुलाकातों और तेरे उन जज्बातों को !
पता है तुम्हें,
मैंने देखा है अक्सर तुम्हारी पलकों पे मेरा इंतज़ार !
तो फिर केह क्यूँ नहीं देती की “तुम्हें है मुझसे प्यार “!!
=> a poetry by:-ÃJ_Ăňüp©️