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27 Apr 2019 · 1 min read

क्या लिखूं ‘…?

क्या लिखूं ‘…?
रुदन लिखूं
मौन, दुःख लिखूं
या लिखूं, अपनी अंतर बेदना
कि दिन कट जाता है
रातें रोने लगती है
बिसूरने लगती है
कितना मुश्किल है …
इन रातों को समझना
कि सभी चाहने वालों के
खिले चेहरों पे नक़ाब चढ़ा है
कि सभी,
कुछ खुल के, कुछ छुप के
जीने को मजबूर खड़ा है
कि इंसान होना ही
सीमाओं में बंधना है
घर-परिबार, देश समाज
दिल-दिमाग सब से बंधे रहना है।
मैं प्रकृति से कहना चाहती हूँ
चीख कर अपनी पूरी सम्बेदना के साथ
मुझे फिर कभी इंसान मत बनाना
जानबर ही रहने देना
जानवर जो खाने और जीने में रमा है
इंसान तो दिमागों के बीच तना है
मुझे इंसान नहीं होना
अपनों के दर्दों को नहीं ढोना
अपना, जो पुरे चराचर में फैला है
सब को किसी न किसी ने ठेला है
बनाना ही हो तो, आदमी न बनाना
औरत बनाना, उसकी समग्रता के साथ !
***
27-04-2019
…पुर्दिल …

Language: Hindi
4 Likes · 2 Comments · 309 Views
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