क्या फर्क पड़ता है?
क्या फर्क पड़ता है?
आटे में नमक मिलाये।
तो क्या फर्क पड़ता है?
थोड़ा प्रतिष्ठान बढ़ाकर,
घर की ड्योढ़ी सरकाकर,
सकडाई से हो दुर घटनाये।
क्या फर्क पड़ता है?
लोकलुभावन सपने लाकर,
झिलमिल कंगूरे दिखाकर,
फिर नीव के प्रस्तर सरकाये।
क्या फर्क पड़ता है?
तम्बाकू पूर्ण निषेध बताकर,
कर्कट की चेतावनी छपाकर,
तंबाकू गुटखे का उद्योग लगाये।
क्या फर्क पड़ता है?
न कोई जन नीति अपनाकर,
भीड़ जुटाओ, रुतबा बताकर,
भगदड़ में कलवित हो जाये।
क्या फर्क पड़ता है?
उफ,बेरोजगारी,महंगाई की मार,
योजनाई निवाला दिखाकार,
मजबूर शाम भूखा सो जाये।
क्या फर्क पड़ता है?
प्रकृति अमृत यूँ ही बहाकर,
संसाधन धन कब्जा जमाकर,
बून्द बून्द फिर से बचाये।
क्या फर्क पड़ता है?
तट तड़पती मछलियां देखकर,
एकैक वापस सागर में डालकर,
बचपन की भावुक हरकत से।
क्या फर्क पड़ता है?
फर्क उनके नहीं जनाब,
उसके पड़ता है।
फर्क मानव के नही,
मानवता के पड़ता है।।
(रचनाकार-डॉ शिव”लहरी”)