क्या गुनाह कर जाता हूं?
मैं गीत-ग़ज़ल जो गाता हूं,
तो क्या गुनाह कर जाता हूं!
चाहत के प्यासे इस दिल की,
थोड़ी-सी प्यास बुझाता हूं!
तो क्या गुनाह कर जाता हूं?
आने वाला यूं नहीं कोई
पर राह निहारे जाता हूं !
नफ़रत वाली इस दुनिया में
मैं प्यार ज़रा फैलाता हूं,
तो क्या गुनाह कर जाता हूं?
रूठीं मेरी ख़ुशियां जब से
मैं ग़म के जश्न मनाता हूं !
टूटे दिल के इस मलबे पर
फिर से घर नया बनाता हूं…!
तो क्या गुनाह कर जाता हूं?
हां, तेरी कमी रुला देती..
फिर भी कह कहके लगाता हूं….!
तो क्या गुनाह कर जाता हूं?
© अभिषेक पाण्डेय अभि