क्या आँच दे सकेंगे बुझते हुए शरारे
गुल सूख जाए हर इक या ग़ुम हों चाँद तारे
गाएंगे लोग फिर भी याँ गीत प्यारे प्यारे
ऐ अब्र! है बरसना तो झूमकर बरस जा
है गर महज़ टहलना तो फिर यहाँ से जा रे!
गोया के आ रहे हैं अब तक सँभालते ही
पागल नदी को फिर भी दिखते नहीं किनारे
डालो अलाव में जी! कुछ और अब जलावन
क्या आँच दे सकेंगे बुझते हुए शरारे
तुर्रा है यह के उल्फ़त ख़ंजर की धार सी है
और उसपे रक्स को हैं बेताब लोग सारे
वह बेल इश्क़ वाली सरसब्ज़ क्या रहेगी
ग़ाफ़िल रहेे जो तेरे शाने के ही सहारे
-‘ग़ाफ़िल’