कौन है जिसको यहाँ पर बेबसी अच्छी लगी
कौन है जिसको यहाँ पर बेबसी अच्छी लगी
ज़िंदगी में कब किसी को तीरगी अच्छी लगी
जब भी होती है किसी को बे-वजह सी ये घुटन
फिर कहाँ किसको भला ये ज़िन्दगी अच्छी लगी
मैं थका हारा हुआ था फिर जा बैठा छाँव में
फिर दरख़्तों की मुझे बस ख़ामुशी अच्छी लगी
जिस तरह गंदुम की रोटी से यूँ मन भरता नही
इस तरह मुझको मिरी माँ की हँसी अच्छी लगी
जब से हमने भी सुनी है दास्तान-ए-कर्बला
तब से हमको बस हमारी तिश्नगी अच्छी लगी