कौन्तय
रण के उस क्षण में कौन्तय शिथिल हो जाते हैं
जब सम्मुख अपने वो अपनों को पाते हैं
अन्तर्मन में ज्वालामुखी सा उठता है
जाने क्या क्या अक्षि में छा जाता है
कोदण्ड कर से छूटा जाता है
जब वात्सल्य पितामह का अक्षि में आता है
कैसे सर चलाऊ राधेय प्रशन ये विकट हो जाता है
इस विडंबना के पल में अक्षि को कुछ न नजर आता है