कोरोना – वक्त वो भी था गले दौड़ के लग जाते थे
कोरोना के मद्देनज़र मेरी पेशकश
दौरे तन्हाई में जीना बड़ा ही मुश्किल है
और अंजान हूँ मैं कौन मेरा क़ातिल है ।
वक्त वो भी था गले दौड़ के लग जाते थे
आज जो हाथ मिलाता है वो भी ज़ाहिल है ।
ऐसे हालात में किस किस को सँभालूँ आख़िर
मुफ़लिसी छायी है औ’र दूर अभी मंज़िल है ।
क्या लगाए वो दफ़ा और सज़ा कौन सी दे
कशमकश में जो पड़ा है वो मेरा आदिल है ।
एक ग़लती भी सबब मौत का बन जाएगी
सँग ख़ुश्बू के कोरोना हवा में शामिल है ।
– अखिलेश वर्मा
मुरादाबाद