कोई समझा नहीं
क्या मिला कैसे मिला हालात को समझा नहीं।
इस जिंदगी ने दर्द के जज्बात को समझा नहीं।।
प्रीत का दीपक जलाकर कालिमा भी छा गयी,
प्रेम सर्वोच्च समर्पण कायनात को समझा नहीं।
गुरूर का था नशा शिकवे – गिले भी हजार थे,
डोर नाजुक बेबस तड़प लम्हात को समझा नहीं।
यह हवाएं यह घटाएं,शुष्क घाटियां कहर ढा रही ,
दम तोडे बेबस फिजाएं,मामलात को समझा नहीं।
सभ्यता, संस्कारों का हो रहा क्षरण किस हाल में,
झूठ छद्म आडंबर ओढ़ा,इबादात को समझा नहीं।
गीत गाती फिजाएं और गूंजे तराने प्रेम सद्भाव के,
वैमनस्य का जहर घोलते,ख्यालात को समझा नहीं।
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