कोई जंचता ही कब है तुम्हारे सिवा – ग़ज़ल
आप नुकसान दें चाहे दे दें नफा।
सामने पर तुम्हारे ये सिर है झुका।।
मान जाओ जरा रुक भी जाओ कभी।
दे रहे हैं तुम्हे प्यार का वास्ता।।
देख लेगा कोई रोज कहती हो ये।
गर खता है यही तो करेंगे सदा।।
हो गई है मुहब्बत सुनो गौर से।
जुर्म है ये अगर तो सुना दो सज़ा।।
बोल देती हो तुम दूसरा ढूंढ लो।
कोई जंचता ही कब है तुम्हारे सिवा।।
पूछती हो अगर क्या हुआ है मुझे।
दर्द भी हो तुम्हीं और तुम ही दवा।।
गोपाल पाठक”कृष्णा”
बरेली, उप्र