कोई अपनों को उठाने में लगा है दिन रात
कोई अपनों को उठाने में लगा है दिन रात
कोई अपनों को गिराने में लगा है दिन रात
कोई दुनिया की हिफाज़त के लिए है बेचैन
कोई दुनिया को जलाने में लगा है दिन रात
कोई रिश्तों के लिए जीता है मरता है यहां
कोई रिश्तों को मिटाने में लगा है दिन रात
घर की बुनियाद हिला कर कोई खुश है बेहद
कोई घर-बार सजाने में लगा है दिन रात
कोई रखता है अंधेरों को मिटाने में यकीं
कोई सूरज को बुझाने में लगा है दिन रात
— शिवकुमार बिलगरामी