कैसे मानूं रावण प्रतापी तुम??
कैसे मानूं रावण प्रतापी तुम,
छल कर लाएं तुम मुझे,
बना भेष ढोंगी का,
फिर भी कहते गर्व से,
मैं रावण कांपता धरा जिसके चलने से।।
लांघ ना सके लखन की रेखा,
करते बातें बड़ी-बड़ी,
अरे गिद्ध जटायु के एक वार से,
मुर्छित हो गए थे तुम,
एक पक्षी से जीत ना सके तुम,
अरे यह कैसी वीरता तुम्हारी?
कम ना हुआ गर्व तुम्हारा ,
आई अकल ना अब तक तुम्हें,
अरे अगर होते सच्चे वीर तो,
हर लाते मुझे मेरे पति के समक्ष।।
अरे छोड़ो तुम तो चोर भी ना सच्चे निकले,
हमारी चोरी करने में अपने ही साथी को मरवा डाला।।
एक नारी के खातिर रावण,
पुरा नगर सुढा कर डाला,
जला गया हनुमान तुम्हारी लंका को,
तुम मलते रह गए हाथ सिर्फ,
जो अपने ही नगर को ना बचा पाए,
ऐसे कैसे वीर हो तुम??
कोई कारण बताओ ,
जो मानलु रावण वीर तुम्हें।।