कैसे तय करें, उसके त्याग की परिपाटी, जो हाथों की लक़ीरें तक बाँट चली।
कैसे तय करें, उसके त्याग की परिपाटी,
जो हाथों की लक़ीरें तक बाँट चली।
सपने तो उन आँखों में कभी आ ना सके,
वो तो अपनी नींद भी, किसी की उमीदों पर वार चली।
पलों में जो अनछुए एहसास जगे,
हर क्षण में वो उनका मूल्य चुका कर चली।
गीली होतीं रही अश्रु से पलकें,
पर अपने दर्द पर मुस्कराहट का हिज़ाब वो तान चली।
आशाओं के बोझ तले कदम कई बार थके,
पर मंजिलों की तलाश में, वो हिम्मतों का हाथ थाम चली।
बड़ी भाँती थी उसकी रूह को ये बारिशें,
पर कर के उन बादलों को भी अलविदा, वो उस शाम चली।
किसी की आँखों में नयी रौशनी की चाह थी उसे,
फिर कर के अपना हीं जीवन वो, अंधेरों के नाम चली।