कैसे जी
भुलाना भी आसां नहीं होता
सहे हैं कुछ तीर ऐसे भी।
जख़्म दिखाये भी नहीं जाते
बने नासूर ये कैसे जी।
जो भी हुआ ,अच्छा हुआ शायद
दौर वो था लगा सुहाना जो शायद।
उन्हें उम्मीद कुछ और थी हमसे
हमीं नादान रहे नासमझ शायद।
खोदी कब्र फिर नश्तर चुभा कर
हैं मौन घाव देकर भला कैसे जी!
बने नासूर ये कैसे जी !!
चलो, ये रौंनके तुमको हो मुबारक
सजी रहें तेरी महफिलें बा रौनक
उठीं हथेलियाँ जब भी दुआ माँगी
खिली रहे लबपे हँसी भी खुलकर
राह पे मेरी बिछाये भले तूने काँटे
चलूँ मैं नंगे पाँव लहू न बहे कैसे जी
बने ये नासूर कैसे जी।।
पाखी_मिहिरा