कैसे कहूँ ‘आनन्द‘ बनने में ज़माने लगते हैं
हालात खुद से बदलने पड़ते हैं,
दर्द हो तो ख़ुशियों में जीने पड़ते हैं ।
बेरहम, बेशर्म दुनिया है, इसका क्या,
तकलीफ़ खुद का समझने पड़ते हैं ।
तुम्हारी ईमानदारी पर तुम्हें हो भरोसा,
अपनों को जानने में ज़माने लगते हैं ।
पत्थर कभी शीशा से टकराकर टूटता नहीं,
शीशा को टूटने में बस एक पल लगते हैं ।
उन्हें मेरे नाम पर ही यक़ीन नहीं होता,
कैसे कहूँ ‘आनन्द‘ बनने में ज़माने लगते हैं।