– कैसी व्यभिचारीता और कैसी आसक्ति –
– कैसी व्यभिचारीता और कैसी आसक्ति –
बचपन छीना जवानी छीनी
छीनी रवानी की वो सौगात,
दिया नही मुझको कभी भी अपनत्व का एहसास,
पारिवारिक जिम्मेदारियों में मुझको ऐसा उलझा दिया,
सुलझा हुआ था मेरा जीवन उसको तुमने बिगाड़ दिया,
रहे तुम अपनी मौज मस्ती में,
चाहे आग लगे घर परिवार और बस्ती में,
तुमको केवल आसक्ति दिखी किसी में,
अपनी व्यभिचारिता के आगे तुमने सब कुछ कुर्बान किया,
बीबी, बच्चे, घर, परिवार, कुल का भी अवसान किया,
बार – बार तुमको मेने समझाया जो था नासमझ ,
फिर भी कुल के हो रहे अवसान का मुझको था भान,
ध्रतराष्ट्र की तरह सभी बड़े बुजुर्ग भी देखकर भी थे अनजान,
दिखाया आईना गहलोत ने उन सबको फिर भी थे चुपचाप ,
जैसे न हो उनके मुख में जुबान,
ऐसे कुल में ऐसा व्यक्ति खुद का भी तो अवसान करेगा,
और कुल का भी करेगा नुकसान,
कैसी व्यभिचारिता कैसी आसक्ति
उससे आशक्त मनुष्य भी है अनजान,
✍️ भरत गहलोत
जालोर राजस्थान