कृष्ण-कर्ण संम्वाद ,प्रसंगवस-आज के परिवेश में
कृष्ण-कौन्तेय,करो तुम इस पर विचार,
पाण्डवों का साथ देकर,करो भूल में तुम सुधार।
कर्ण-“हे मधुसूदन,देर हुई अब,
लौट मै नही सकता,
दिया वचन है मां गान्धारी को,भाग नही मै पाऊंगा
जीवित रहते,मै दुर्योधन को छोड के नही जाऊंगा
कर्ण- केशव मुझको यह बतलाओ,
दोष मेरा तब क्या था,मां ने जन्मा,फिर क्यों तब मुझको छोड दिया,क्षत्रिय न था तो गुरु द्रौण ने शिक्षा से भी वंचित किया, ऋषि परशुराम ने दी थी,शिक्षा और फिर शापित भी किया,
किया गया तब भी अपमानित,द्रौपदी का जब स्वयमंबर हुआ, वह दुर्योधन ही तो था,
जिसने मुझको समझा,और अंग राज से सम्मानित किया,अब जब उस पर संकट आया है,
मै उसका साथ छोड दूँ कैसे,
नही माधव,यह मै कर न सकूंगा, ऐसै,
जीत हार अब अर्थ हीन है,
कलकिंत होकर मै जी न सकूंगा ।
कृष्ण-“अंगराज,तो सुनो मुझे,
काल कोठरी मे जन्म हुआ था,
मात पिता ने भी त्याग दिया ,
कर दूर अपने आंचल से,मां यशोदा को सौपं दिया
पशुशालाओं मे पला बढा,भय का आलम इतना था,गऊओं संग जीवन साधा,
कितने असुरों को मैने झेला,
शिक्षा से भी मैं वंचित रहा हुँ,
हासील यह किशोरावस्था मे किया,
ॠषि सन्दीपन के आश्रम में पाकर ज्ञान,
मुझे राज काज को प्रस्तुत किया,
किया प्रेम जिससे मैने,उसको भी मे पा न सका।
तुमने जिसको प्यार किया था,
उसको तुमने पाया भी है, पर मुझको क्या मिला,
मिली मुझे हैं वह सब नारियां,जिन्हे मैने बचाया था
थी वह जब घोर संकट मे,उन आसुरी शक्तियों से मुक्त कराया था,यमुना तट से हट कर मैने,जब नया नगर बसाया था,नाम मिला रण छोड मुझे,तब
क्यों मै यह कहलाया था।
कल अगर दुर्योधन जिता,तो यश तुम्हे अपार मिलेगा,गर जीत मिली धर्मराज को,तो मुझको क्या मिलेगा।
जीवन मे आती ही हैं ये चुनौतियां,
वह चाहे तुम हो या फिर हुँ मै ही,
या फिर वह दुर्योधन हो,या हो वह युद्धिष्ठर ही,
सबको न्याय अन्याय मे न पड कर,
अधर्म नही अपनाना है,यही सार है धर्म ग्रन्थो का
यही मेरा नजराना है,और यही तुम्हे समझाना भी है।