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25 Jun 2023 · 16 min read

कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘समय सरगम’ में बहुजन समाज के प्रति पूर्वग्रह : MUSAFIR BAITHA

कृष्णा सोबती जैसी जानी-मानी कथाकार अपने उपन्यास ‘समय सरगम’ में कैसे सबाल्टर्न वर्ग व उनको मिले संवैधानिक आरक्षण पर विरोध में पॉजिशन लेती दिखती हैं, उपन्यास की की गयी मेरे द्वारा समीक्षा के इस अंश में पढ़िए –

कृष्णा सोबती ‘समय सरगम’ उपन्यास में संविधान-योजित जातिगत आरक्षण पर विरोध व तंग नजरिया पेश करती नजर आती हैं। इस बहसतलब मुद्दे पर वे एक दूरी बनाए, तटस्थ होते नहीं दिखतीं।

आरण्या की आत्मा में पैठ वह वर्चस्वशाली जातियों के पक्ष में बयान करने के लोभ का संवरण नहीं कर पातीं। एक प्रसंग में वह पार्क की राग-रागिनियों, फूलों की खूबसूरती के ब्यौरे में रमण करती हुईं सहसा उस खूबसूरती की ऊभ-चूभ से मानो ऊब निकल राजनीति की बू सूंघने में रम जाती हैं-‘सामने लतरों के झुरमुट। बुगनबेलिया की गुच्छीली चटक बेलें। चटक लाल गुलाबी। ब्राजीलियन पाम। जातिमान। पीछे वाले, छोटी जात के अलग खड़े हैं। पार्क में भी बांट! मंडल राजनीति ही तो!’ (पृष्ठ-10)

मन को चुभती-मथती बात उफन कर देर-सबेर आखिरकार, सतह पर आ ही जाती है। उपमान मनु जनित कमंडल राजनीति से देने का अवसर था पर बात मंडल पर आ अटकी। चोर की दाढ़ी में तिनका! छोटी जात वाले अलग खड़े हैं या कि खड़े किए जाते रहे हैं? जिन्दगी को खूबसूरत बनाने की योजना में भी यदि किसी को मंडल राजनीति ही सता रही हो और कमंडल की साम्प्रदायिक बू नासिका को बिल्कुल न उबकाए तो अन्तःकरण में जरूर कुछ न कुछ टीस मार रहा होना चाहिए, मन में जरूर कुछ स्वादबिगाड़ू पक रहा होना चाहिए! एक बूढ़े-वरिष्ठ नागरिक का मन भी मंडल में महज राजनीति ही सूंघता है, उसके उद्भव के सांस्कृतिक-सामाजिक संदर्भ की टोह नहीं लेता, क्या विचारणीय नहीं हो सकता?

मुगालते में मत रहिए कि खूबसूरती को निहारने वालों की आत्मा में शुभ ही शुभ बसता है, पक्षकर राजनीति नहीं बस सकती।
आश्चर्य तब और बलित होता है जब कथित उच्च और निम्न जातियों के मानव निर्मित भेद की हां में हां मिलाकर उन्हें क्रमशः संस्कारी व संस्कारहीन या कि देवता और दानव कहने का उद्दण्ड ब्राह्मणवादी फतवा देने और मां के गर्भ को वर्गभेद के आधार पर संस्कारी व संस्कारहीन ठहराकर बांटने में भी लेखिका को कोई गुरेज नहीं होता

इतना तो तय है कि शुद्ध संस्कार वाली उच्चवर्गीय माता के गर्भ से ही हम गर्भ लेंगे। संस्कारी और संस्कारहीन जातियों का भेद युगों से चला आ रहा है। ब्राह्मण रहे देवताओं के किरदार और निम्न वर्ग राक्षसों के।(पृष्ठ-141)

-हरे जाजम का-सा घास। अपने हरे-भरे की सुरक्षा इसका धर्म है! (पृष्ठ-10) इस कथन के प्रति अनुराग-भाव के उलट सूखे पेड़, हरियाली के लिए अतिरिक्त सिंचन-पोषण की आवश्यकता के प्रति उपेक्षा या कि रोष-भाव लेखिका की किसी मानसिक बुनावट की ओर इशारा करते प्रतीत होते हैं। दूसरी तरफ ‘भारतीय चिंतन और दर्शन’ पर भी यहां (पृष्ठ-59) एक निष्कर्षहीन बहस चली है। ईशान कहते हैं कि भारतीय चिंतन और दर्शन पलायनवादी नहीं है। उसने जीवन की समस्याओं को गठित मूल्य के दृष्टिकोण से देखा है। वार्तालाप के कुछ टुकड़े:
-ब्राह्मण अपने कौशल से अब्राह्मण को ब्राह्मण नहीं बना सकता-कहिए ईशान, इसके जवाब में आप क्या कहेंगे!
-ईशान ने सख्ती से कहा-कुछ भी नहीं।
-कुछ तो कहें। मैं आरक्षित कोटे से नहीं हूं। शास्त्र की बात न समझ पाऊं तो भी अपने मतलब की बात समझ सकती हूं।
-ईशान हंस दिए।

बहरहाल, इस बहस से लेखिका का एक पूर्वग्रह साफ तौर सामने आता है कि सामाजिक तौर पर आरक्षण पाए पिछड़ों को वे निम्न बौद्धिक स्तर का मानती हैं, जिन्हें शास्त्रोक्त गूढ़ बातों की समझ नहीं हो सकती और न ही अपने हित-अहित की बात समझ सकने का शऊर। आरण्या का उपर्युक्त उच्च जातीय दंभ कथन और ईशान का प्रत्युत्तर में महज हंस कर रह जाना इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए क्या पर्याप्त नहीं है?निमग्नता और कठोरता से ईशान रस निकालने के लिए मौसमी काट रहे हैं। आरण्या कुछ देर उनके हाथों को देखती हैं, फिर हल्की आवाज में छेड़छाड़ करती हैं। ईशान के इस उद्योग की आरक्षण से हनुमान कूद संगति बिठा लेती हैं (पृष्ठ-66-67)-
-मैं अगर आरक्षण वाली किसी वती या कुमारी की तरफ से रस निकालने की इस क्रिया का अवलोकन कर प्रेस को भेजूं तो कहना होगा कि आपकी इस क्रिया में आपके जातीय प्राचीन स्मृति के पुनीत और कठोर भाव ही प्रदर्शित होते हैं!
-क्या मतलब! आरण्या हंसने लगी।
-यही कि रस निकाल लो और छिलके फेंक दो। यह मैं अपनी ओर से नहीं कह रही, जो आरक्षण मांग रहे हैं, यह उनकी धारणा है।

उपरि उद्धृत संवाद दलित-आरक्षण के विरोध में व्यंग्य स्पष्ट है। यहां संकेतित ‘आरक्षण वाली वती या कुमारी’ से आशय दबंग दलित महिला नेता कुमारी मायावती का ही है। मायावती हों या आज के कोई और राजनेता, सभी स्वार्थ की सिद्धांतहीन राजनीति ही अधिक करते हैं। उत्तरप्रदेश की इस वर्तमान मुख्यमंत्री द्वारा सवर्ण वचर्स्व की चूलें हिला कर सत्तारूढ़ होना और सवर्णों का प्रतिआरक्षणपरक बेजा वर्चस्व को तोड़ दिखाना लेखिका को संभवतः नागवार गुजरता है। नहीं तो उपन्यास में किसी अन्य राजनीतिक व्यक्तित्व पर व्यक्तिगत आक्षेप क्यों नहीं आरोपित हुए हैं?

एक अन्य संदर्भ में भी संवैधानिक आरक्षण के प्रति हेय नजरिए की अभिव्यक्ति हुई, और इस आरक्षण के विरुद्ध शिकायत मानो किसी संसार नियंता प्रभु तक पहुंचाई जा रही है, यह मान कर कि धरती पर के प्रभुवर्ग इस आरक्षण को हटाने से रहे। तनिक संदर्भ पर गौर कीजिए-
-स्वर्ग की सभी निधियां आपने मृत्युलोक की ओर प्रवाहित कर दी हैं। क्या आप हमें अनुसूचित जातियों का-सा आरक्षण कार्ड दे रहे हैं? प्रभुवर, ऐसा न कीजिए। हमें क्या आपकी संसद के बाहर धरना देना पड़ेगा! (पृष्ठ-112)

ध्यान देने योग्य तथ्य यह कि ये बातें किसी युवा के मुंह से नहीं वरण वयोवृद्ध नागरिक के मुंह से कहलवाई जा रही हैं। समाज के प्रभुवर्गों के द्वारा सृजित पक्षधर नियामकों के चलते सदियों से बहुविध वंचना झेलते आ रहे दलितों-वंचितों की वंचनापूर्ण कारुणिक स्थिति से द्रवित होने की जगह उनको मिलने वाले संविधान-सम्मत लोकतांत्रिक आरक्षण के विरुद्ध ईश्वर की संसद के बाहर धरना देने की सुविधापरस्त वर्ग की धमकी से ही हम उनके मन में बैठी सवर्ण मल-मैल के खोभार का पता लगा सकते हैं।

जातिभेद और जातिगत आरक्षण की बाबत धोबी रामखेलावन जैसे क्षणभंगुर पात्र का भी सृजन किया गया है और उसके दलित मुख में कुछ ऐसे संवाद डलवाए गए हैं जिससे मियां की जूती मियां के सिर ही जा लगे। रामखेलावन का अधिकार सजग युवा बेटा, जो नई पीढ़ी के सचेत दलित का प्रतिनिधि हो सकता है, जब अपने हक-अधिकार की बात करते हुए सवर्ण-वर्चस्व के विरुद्ध बोलता है तो उसका बाप उसकी इस हरकत पर सकुचाने लगता है, ये बातें उसे अपने जैसों यानी छोटी जात वालों का ही प्रपंच लगती हैं। ये बातें उसे भंगी-चमारों की लगती हैं। हमें रामखेलावन धोबी यानी एक लगभग अनपढ़ दलित वर्तमान और रामकालिक राजनीति पर अचरजकारी दूरंदेशी समझ रखते मिलता है। आरण्या और ईशान की मौजूदगी में रामखेलावन द्वारा बंचवाये गये प्रस्तुत संवाद और लेखकीय टिप्पणी से स्पष्ट हो जाएगा। एक दलित को उसके अनकिए के लिए भी खुद ही कुसुरवार ठहरवा लेने एवं अपने पक्ष में की गई संवैधानिक आरक्षण व्यवस्था के विरुद्ध बोलवाने की चालाक सवर्ण जिद यहां बेहद निर्लज्ज रूप से ‘लाउड’ होकर अभिव्यक्त हुआ है। हां, अलबत्ता बतौर ‘हाथी के दांत…’ या फिर ‘डैमेज कंट्रोल एक्सरसाइज’ जरूर कुछ सवर्णविरुद्ध अल्फाज भी इस संदर्भ में टांक दिए गए हैं (पृष्ठ-119-120)-
-(रामखेलावन ने) सोचा यह (मेरा पुत्र) भंगी-चमारों की बात दुहरा रहा है। साहिब, यह सब छोटी जात वालों का प्रपंच है।
-समझा कर कहा-बेटे, तुम ऐसी बातें करके क्यों जात का धोबी कहलाना चाहते हो! हमलोगों ने सीता मैया को पहले भी कम दुख नहीं दिए थे। हमीं लोगों ने सीता मैया की निंदा कर उन्हें अग्नि-परीक्षा को भिजवाया था।
-आरण्या असमंजस में रामखेलावन से नजर चुराए रही।
-रामखेलावन बोले-साहिब, ऊंची जात-बिरादरी ने भी कम घृणा नहीं फैला रखी। …आरक्षण को लेकर कभी मनुवादी उबलते हैं, और कभी कमजोर वर्ग। धंधे की राजनीति है। जाने कब तक खेली जाएगी। यह सिलसिला कब तक चलता रहेगा।

उद्धरण इस बात का भी संकेत देता है कि लेखिका ने कथित ऊंची जात के प्रति राग और नीच जात के लिए धिक्कारेच्छा पाल रखी है। नई पीढ़ी के एक अधिकार-सजग दलित को उसके अपने ही पिता द्वारा पथभ्रष्ट साबित करवाना, कथित त्रेतायुगीन मिथकीय राजा राम द्वारा सीता को निष्काषित किए जाने की कथा में आए धोबी को सीता-निष्कासन का कुसुरवार ठहराते हुए आज के धोबी समाज को भी दोष-सिद्ध करवाना कितनी बड़ी जातिगंधी सवर्ण कार्रवाई है, यह सहज विचारणीय है। क्या राम अबोध बालक था कि अपना सुध-बुध छोड़ किसी अदना से धोबी के कहने में आ गया। क्या एक न्यायसजग शासक किसी कानोंसुनी बात के झूठ-सच की पड़ताल किए बिना, प्रभावित पक्ष को अपनी सफाई का अवसर दिए बिना कोई ऐसा बड़ा एकपक्षीय न्याय-निर्णय सुनाने का अधिकारी है? किसी पुरुषोत्तम द्वारा क्या ऐसा अविवेकी-अन्यायी कदम उठाया जाना चाहिए था। इस प्रसंग में हाल में आई.बी.एन.-7 न्यूज चैनल द्वारा लगभग एक दिन पूरे चलाई गई ‘स्टोरी’ का उल्लेख प्रासंगिक है। यह स्टोरी’ चलाए जाने के दौरान चैनल ने विज्ञापन भी खूब बटोरे। पांच मिनट ‘स्टोरी’ चलती तो दस मिनट विज्ञापन! ‘स्टोरी’ का शीर्षक रखा गया था-‘एक धोबी का धोबिया पाट’। किसी पुराण के हवाले से कही गई इस चैनल-कथा का लब्बोलुबाब यह था कि शिव-पार्वती से श्राप पा एक सुग्गा-सुग्गी के जोड़े ने उक्त धोबी-धोबिन के रूप में जन्म लिया और राम व सीता के रूप में कथित अवतार लेने वाले शिव-पार्वती से बदला लेने के लिए सीता पर रावण द्वारा अशुद्ध किए जाने का दोषारोपण किया। जाहिर है, अपने समय-समाज की सधी समझ रखने वाली दर्जन भर से अधिक दमदार कथा-कथेतर पुस्तक लिखने वाली अनुभववृद्ध लेखिका की राम मिथक पर ‘समय सरगम’ में यह अंधविश्वासी-आग्रही समझ एक लोकतांत्रिक चित्त पाठक को काफी सालने वाली लगनी चाहिए।

लेखिका का एक विवादास्पद विचार हमारे रहने-सहने की सुखकर-दुखकर स्थिति को लेकर आता है। यह बात (पृष्ठ-125) एक सर्वमान्य कथन/सुभाषित (यूनिवर्सल ट्रुथ) की तरह आता है कि ‘आवास की सुविधा ही नागरिक जीवन का आधार है’। और इसी आसंग में लेखिका के विचार कुछ यों आते हैं-‘सच तो यह आवास ही मानसिक विकास और नागरिक अध्यात्म का मूल है। पटरियों और रैन-बसेरों में रह कर सिर्फ झिल्ली उठाने और जेब कतरने के अलावा कोई दूसरा काम नहीं किया जा सकता।’ तो यह है लेखिका की नायाब सोच कि बेघर रहगुजर करने वाले महज दो ही काम कर सकते हैं-एक, झिल्ली उठाना, दूसरा जेब कतरना। जरा सोचिए, पटरियों और रैन-बसेरों में रहना किसी की मजबूरी होगी या कि चुनाव? अच्छे आवासों में कितने ही रहने वालों के मानसिक स्खलन और नागरिक मर्यादा के विरुद्ध आचरण की गवाह हमारा समय है। सच्ची, हमारा सुविधाभोगी होना हमें बहुद हद तक अमानवीय बना जाता है, हमें सुविधाविहीन लोक को हेय समझने के उच्च-उदात्त नागरिक अध्यात्म बोध के साथ पवित्र-विशिष्ट बनाये रखता है। यही नागरिक अध्यात्म बोध हमें गरिमामय मानव जीवन के लिए जरूरी न्यूनतम सुविधा के लिए तरसते लोगों को देखकर द्रवित होने, उनके प्रति अपने दायित्वों को स्वीकारने की जगह उलटे उनके विरुद्ध निर्दय पूर्वग्रह पाल लेने के सुरक्षित पलायन का रास्ता अख्तियार करवाता है। ऐसे में, अनजाने नहीं समझ-बूझ कर देश की शक्ति-संसाधन को बहुविध बेहिसाब कुतरने वालों, समाज के सफेदपोश लुटेरों पर हम हाय-तौबा नहीं मचाते और क्षुद्र जेबकतरी की हिसाबदारी में लग जाते हैं। अशर्फी की लूट और कोयले पर छाप! ऐसे ही एकाकी पर सुविधाभोगी जीवन जीने वाले बुजुर्ग के लिए यह अभिमान-कथन हो सकता है कि घर में ‘आलमारी के साथ सूटकेसों की कतार लगी है’ (पृष्ठ-126)। ऐसे निर्लज्ज सुविधाभोगियों को क्या यह भान नहीं होता कि देश के बहुसंख्यक अभावग्रस्तों का कहीं न कहीं हक-हिस्सा हड़प्प-कुतर कर ही वे आलीशान सुविधा-संपन्न महलों के पक्ष में अपना नीच कुतर्क दे रहे होते हैं।

कृष्णा सोबती जैसी जानी-मानी कथाकार अपने उपन्यास ‘समय सरगम’ में कैसे घोर सवर्ण हैं एवं दलित-पिछड़ा समुदाय व उनको मिले संवैधानिक आरक्षण का घोर विरोधी हैं, उपन्यास की की गयी मेरे द्वारा समीक्षा के इस अंश में पढ़िए –

कृष्णा सोबती ‘समय सरगम’ उपन्यास में संविधान-योजित जातिगत आरक्षण पर विरोध व तंग नजरिया पेश करती नजर आती हैं। इस बहसतलब मुद्दे पर एक दूरी बना कर, तटस्थ होकर अथवा सवर्ण हुए बिना वे नहीं देखतीं।

आरण्या की आत्मा में पैठ वह वर्चस्वशाली जातियों के पक्ष में बयान करने के लोभ का संवरण नहीं कर पातीं। एक प्रसंग में वह पार्क की राग-रागिनियों, फूलों की खूबसूरती के ब्यौरे में रमण करती हुईं सहसा उस खूबसूरती की ऊभ-चूभ से मानो ऊब निकल राजनीति की बू सूंघने में रम जाती हैं-‘सामने लतरों के झुरमुट। बुगनबेलिया की गुच्छीली चटक बेलें। चटक लाल गुलाबी। ब्राजीलियन पाम। जातिमान। पीछे वाले, छोटी जात के अलग खड़े हैं। पार्क में भी बांट! मंडल राजनीति ही तो!’ (पृष्ठ-10)

मन को चुभती-मथती बात उफन कर देर-सबेर आखिरकार, सतह पर आ ही जाती है। उपमान मनु जनित कमंडल राजनीति से देने का अवसर था पर बात मंडल पर आ अटकी। चोर की दाढ़ी में तिनका! छोटी जात वाले अलग खड़े हैं या कि खड़े किए जाते रहे हैं? जिन्दगी को खूबसूरत बनाने की योजना में भी यदि किसी को मंडल राजनीति ही सता रही हो और कमंडल की साम्प्रदायिक बू नासिका को बिल्कुल न उबकाए तो अन्तःकरण में जरूर कुछ न कुछ टीस मार रहा होना चाहिए, मन में जरूर कुछ स्वादबिगाड़ू पक रहा होना चाहिए! एक बूढ़े-वरिष्ठ नागरिक का मन भी मंडल में महज राजनीति ही सूंघता है, उसके उद्भव के सांस्कृतिक-सामाजिक संदर्भ की टोह नहीं लेता, क्या विचारणीय नहीं हो सकता?

मुगालते में मत रहिए कि खूबसूरती को निहारने वालों की आत्मा में शुभ ही शुभ बसता है, पक्षकर राजनीति नहीं बस सकती।
आश्चर्य तब और बलित होता है जब कथित उच्च और निम्न जातियों के मानव निर्मित भेद की हां में हां मिलाकर उन्हें क्रमशः संस्कारी व संस्कारहीन या कि देवता और दानव कहने का उद्दण्ड ब्राह्मणवादी फतवा देने और मां के गर्भ को वर्गभेद के आधार पर संस्कारी व संस्कारहीन ठहराकर बांटने में भी लेखिका को कोई गुरेज नहीं होता

इतना तो तय है कि शुद्ध संस्कार वाली उच्चवर्गीय माता के गर्भ से ही हम गर्भ लेंगे। संस्कारी और संस्कारहीन जातियों का भेद युगों से चला आ रहा है। ब्राह्मण रहे देवताओं के किरदार और निम्न वर्ग राक्षसों के।(पृष्ठ-141)

-हरे जाजम का-सा घास। अपने हरे-भरे की सुरक्षा इसका धर्म है! (पृष्ठ-10) इस कथन के प्रति अनुराग-भाव के उलट सूखे पेड़, हरियाली के लिए अतिरिक्त सिंचन-पोषण की आवश्यकता के प्रति उपेक्षा या कि रोष-भाव लेखिका की किसी मानसिक बुनावट की ओर इशारा करते प्रतीत होते हैं। दूसरी तरफ ‘भारतीय चिंतन और दर्शन’ पर भी यहां (पृष्ठ-59) एक निष्कर्षहीन बहस चली है। ईशान कहते हैं कि भारतीय चिंतन और दर्शन पलायनवादी नहीं है। उसने जीवन की समस्याओं को गठित मूल्य के दृष्टिकोण से देखा है। वार्तालाप के कुछ टुकड़े:
-ब्राह्मण अपने कौशल से अब्राह्मण को ब्राह्मण नहीं बना सकता-कहिए ईशान, इसके जवाब में आप क्या कहेंगे!
-ईशान ने सख्ती से कहा-कुछ भी नहीं।
-कुछ तो कहें। मैं आरक्षित कोटे से नहीं हूं। शास्त्र की बात न समझ पाऊं तो भी अपने मतलब की बात समझ सकती हूं।
-ईशान हंस दिए।

बहरहाल, इस बहस से लेखिका का एक पूर्वग्रह साफ तौर सामने आता है कि सामाजिक तौर पर आरक्षण पाए पिछड़ों को वे निम्न बौद्धिक स्तर का मानती हैं, जिन्हें शास्त्रोक्त गूढ़ बातों की समझ नहीं हो सकती और न ही अपने हित-अहित की बात समझ सकने का शऊर। आरण्या का उपर्युक्त उच्च जातीय दंभ कथन और ईशान का प्रत्युत्तर में महज हंस कर रह जाना इस निष्कर्ष पर पहुंचने के लिए क्या पर्याप्त नहीं है?निमग्नता और कठोरता से ईशान रस निकालने के लिए मौसमी काट रहे हैं। आरण्या कुछ देर उनके हाथों को देखती हैं, फिर हल्की आवाज में छेड़छाड़ करती हैं। ईशान के इस उद्योग की आरक्षण से हनुमान कूद संगति बिठा लेती हैं (पृष्ठ-66-67)-
-मैं अगर आरक्षण वाली किसी वती या कुमारी की तरफ से रस निकालने की इस क्रिया का अवलोकन कर प्रेस को भेजूं तो कहना होगा कि आपकी इस क्रिया में आपके जातीय प्राचीन स्मृति के पुनीत और कठोर भाव ही प्रदर्शित होते हैं!
-क्या मतलब! आरण्या हंसने लगी।
-यही कि रस निकाल लो और छिलके फेंक दो। यह मैं अपनी ओर से नहीं कह रही, जो आरक्षण मांग रहे हैं, यह उनकी धारणा है।

उपरि उद्धृत संवाद दलित-आरक्षण के विरोध में व्यंग्य स्पष्ट है। यहां संकेतित ‘आरक्षण वाली वती या कुमारी’ से आशय दबंग दलित महिला नेता कुमारी मायावती का ही है। मायावती हों या आज के कोई और राजनेता, सभी स्वार्थ की सिद्धांतहीन राजनीति ही अधिक करते हैं। उत्तरप्रदेश की इस वर्तमान मुख्यमंत्री द्वारा सवर्ण वचर्स्व की चूलें हिला कर सत्तारूढ़ होना और सवर्णों का प्रतिआरक्षणपरक बेजा वर्चस्व को तोड़ दिखाना लेखिका को संभवतः नागवार गुजरता है। नहीं तो उपन्यास में किसी अन्य राजनीतिक व्यक्तित्व पर व्यक्तिगत आक्षेप क्यों नहीं आरोपित हुए हैं?

एक अन्य संदर्भ में भी संवैधानिक आरक्षण के प्रति हेय नजरिए की अभिव्यक्ति हुई, और इस आरक्षण के विरुद्ध शिकायत मानो किसी संसार नियंता प्रभु तक पहुंचाई जा रही है, यह मान कर कि धरती पर के प्रभुवर्ग इस आरक्षण को हटाने से रहे। तनिक संदर्भ पर गौर कीजिए-
-स्वर्ग की सभी निधियां आपने मृत्युलोक की ओर प्रवाहित कर दी हैं। क्या आप हमें अनुसूचित जातियों का-सा आरक्षण कार्ड दे रहे हैं? प्रभुवर, ऐसा न कीजिए। हमें क्या आपकी संसद के बाहर धरना देना पड़ेगा! (पृष्ठ-112)

ध्यान देने योग्य तथ्य यह कि ये बातें किसी युवा के मुंह से नहीं वरण वयोवृद्ध नागरिक के मुंह से कहलवाई जा रही हैं। समाज के प्रभुवर्गों के द्वारा सृजित पक्षधर नियामकों के चलते सदियों से बहुविध वंचना झेलते आ रहे दलितों-वंचितों की वंचनापूर्ण कारुणिक स्थिति से द्रवित होने की जगह उनको मिलने वाले संविधान-सम्मत लोकतांत्रिक आरक्षण के विरुद्ध ईश्वर की संसद के बाहर धरना देने की सुविधापरस्त वर्ग की धमकी से ही हम उनके मन में बैठी सवर्ण मल-मैल के खोभार का पता लगा सकते हैं।

जातिभेद और जातिगत आरक्षण की बाबत धोबी रामखेलावन जैसे क्षणभंगुर पात्र का भी सृजन किया गया है और उसके दलित मुख में कुछ ऐसे संवाद डलवाए गए हैं जिससे मियां की जूती मियां के सिर ही जा लगे। रामखेलावन का अधिकार सजग युवा बेटा, जो नई पीढ़ी के सचेत दलित का प्रतिनिधि हो सकता है, जब अपने हक-अधिकार की बात करते हुए सवर्ण-वर्चस्व के विरुद्ध बोलता है तो उसका बाप उसकी इस हरकत पर सकुचाने लगता है, ये बातें उसे अपने जैसों यानी छोटी जात वालों का ही प्रपंच लगती हैं। ये बातें उसे भंगी-चमारों की लगती हैं। हमें रामखेलावन धोबी यानी एक लगभग अनपढ़ दलित वर्तमान और रामकालिक राजनीति पर अचरजकारी दूरंदेशी समझ रखते मिलता है। आरण्या और ईशान की मौजूदगी में रामखेलावन द्वारा बंचवाये गये प्रस्तुत संवाद और लेखकीय टिप्पणी से स्पष्ट हो जाएगा। एक दलित को उसके अनकिए के लिए भी खुद ही कुसुरवार ठहरवा लेने एवं अपने पक्ष में की गई संवैधानिक आरक्षण व्यवस्था के विरुद्ध बोलवाने की चालाक सवर्ण जिद यहां बेहद निर्लज्ज रूप से ‘लाउड’ होकर अभिव्यक्त हुआ है। हां, अलबत्ता बतौर ‘हाथी के दांत…’ या फिर ‘डैमेज कंट्रोल एक्सरसाइज’ जरूर कुछ सवर्णविरुद्ध अल्फाज भी इस संदर्भ में टांक दिए गए हैं (पृष्ठ-119-120)-
-(रामखेलावन ने) सोचा यह (मेरा पुत्र) भंगी-चमारों की बात दुहरा रहा है। साहिब, यह सब छोटी जात वालों का प्रपंच है।
-समझा कर कहा-बेटे, तुम ऐसी बातें करके क्यों जात का धोबी कहलाना चाहते हो! हमलोगों ने सीता मैया को पहले भी कम दुख नहीं दिए थे। हमीं लोगों ने सीता मैया की निंदा कर उन्हें अग्नि-परीक्षा को भिजवाया था।
-आरण्या असमंजस में रामखेलावन से नजर चुराए रही।
-रामखेलावन बोले-साहिब, ऊंची जात-बिरादरी ने भी कम घृणा नहीं फैला रखी। …आरक्षण को लेकर कभी मनुवादी उबलते हैं, और कभी कमजोर वर्ग। धंधे की राजनीति है। जाने कब तक खेली जाएगी। यह सिलसिला कब तक चलता रहेगा।

उद्धरण इस बात का भी संकेत देता है कि लेखिका ने कथित ऊंची जात के प्रति राग और नीच जात के लिए धिक्कारेच्छा पाल रखी है। नई पीढ़ी के एक अधिकार-सजग दलित को उसके अपने ही पिता द्वारा पथभ्रष्ट साबित करवाना, कथित त्रेतायुगीन मिथकीय राजा राम द्वारा सीता को निष्कासित किए जाने की कथा में आए धोबी को सीता-निष्कासन का कुसुरवार ठहराते हुए आज के धोबी समाज को भी दोष-सिद्ध करवाना कितनी बड़ी जातिगंधी सवर्ण कार्रवाई है, यह सहज विचारणीय है। क्या राम अबोध बालक था कि अपना सुध-बुध छोड़ किसी अदना से धोबी के कहने में आ गया। क्या एक न्यायसजग शासक किसी कानोंसुनी बात के झूठ-सच की पड़ताल किए बिना, प्रभावित पक्ष को अपनी सफाई का अवसर दिए बिना कोई ऐसा बड़ा एकपक्षीय न्याय-निर्णय सुनाने का अधिकारी है? किसी पुरुषोत्तम द्वारा क्या ऐसा अविवेकी-अन्यायी कदम उठाया जाना चाहिए था। इस प्रसंग में हाल में आई.बी.एन.-7 न्यूज चैनल द्वारा लगभग एक दिन पूरे चलाई गई ‘स्टोरी’ का उल्लेख प्रासंगिक है। यह स्टोरी’ चलाए जाने के दौरान चैनल ने विज्ञापन भी खूब बटोरे। पांच मिनट ‘स्टोरी’ चलती तो दस मिनट विज्ञापन! ‘स्टोरी’ का शीर्षक रखा गया था-‘एक धोबी का धोबिया पाट’। किसी पुराण के हवाले से कही गई इस चैनल-कथा का लब्बोलुबाब यह था कि शिव-पार्वती से श्राप पा एक सुग्गा-सुग्गी के जोड़े ने उक्त धोबी-धोबिन के रूप में जन्म लिया और राम व सीता के रूप में कथित अवतार लेने वाले शिव-पार्वती से बदला लेने के लिए सीता पर रावण द्वारा अशुद्ध किए जाने का दोषारोपण किया। जाहिर है, अपने समय-समाज की सधी समझ रखने वाली दर्जन भर से अधिक दमदार कथा-कथेतर पुस्तक लिखने वाली अनुभववृद्ध लेखिका की राम मिथक पर ‘समय सरगम’ में यह अंधविश्वासी-आग्रही समझ एक लोकतांत्रिक चित्त पाठक को काफी सालने वाली लगनी चाहिए।

लेखिका का एक विवादास्पद विचार हमारे रहने-सहने की सुखकर-दुखकर स्थिति को लेकर आता है। यह बात (पृष्ठ-125) एक सर्वमान्य कथन/सुभाषित (यूनिवर्सल ट्रुथ) की तरह आता है कि ‘आवास की सुविधा ही नागरिक जीवन का आधार है’। और इसी आसंग में लेखिका के विचार कुछ यों आते हैं-‘सच तो यह आवास ही मानसिक विकास और नागरिक अध्यात्म का मूल है। पटरियों और रैन-बसेरों में रह कर सिर्फ झिल्ली उठाने और जेब कतरने के अलावा कोई दूसरा काम नहीं किया जा सकता।’ तो यह है लेखिका की नायाब सोच कि बेघर रहगुजर करने वाले महज दो ही काम कर सकते हैं-एक, झिल्ली उठाना, दूसरा जेब कतरना। जरा सोचिए, पटरियों और रैन-बसेरों में रहना किसी की मजबूरी होगी या कि चुनाव? अच्छे आवासों में कितने ही रहने वालों के मानसिक स्खलन और नागरिक मर्यादा के विरुद्ध आचरण की गवाह हमारा समय है। सच्ची, हमारा सुविधाभोगी होना हमें बहुद हद तक अमानवीय बना जाता है, हमें सुविधाविहीन लोक को हेय समझने के उच्च-उदात्त नागरिक अध्यात्म बोध के साथ पवित्र-विशिष्ट बनाये रखता है। यही नागरिक अध्यात्म बोध हमें गरिमामय मानव जीवन के लिए जरूरी न्यूनतम सुविधा के लिए तरसते लोगों को देखकर द्रवित होने, उनके प्रति अपने दायित्वों को स्वीकारने की जगह उलटे उनके विरुद्ध निर्दय पूर्वग्रह पाल लेने के सुरक्षित पलायन का रास्ता अख्तियार करवाता है। ऐसे में, अनजाने नहीं समझ-बूझ कर देश की शक्ति-संसाधन को बहुविध बेहिसाब कुतरने वालों, समाज के सफेदपोश लुटेरों पर हम हाय-तौबा नहीं मचाते और क्षुद्र जेबकतरी की हिसाबदारी में लग जाते हैं। अशर्फी की लूट और कोयले पर छाप! ऐसे ही एकाकी पर सुविधाभोगी जीवन जीने वाले बुजुर्ग के लिए यह अभिमान-कथन हो सकता है कि घर में ‘आलमारी के साथ सूटकेसों की कतार लगी है’ (पृष्ठ-126)। ऐसे निर्लज्ज सुविधाभोगियों को क्या यह भान नहीं होता कि देश के बहुसंख्यक अभावग्रस्तों का कहीं न कहीं हक-हिस्सा हड़प-कुतर कर ही वे आलीशान सुविधा-संपन्न महलों के पक्ष में अपना ब्राह्मणवादी कुतर्क दे रहे होते हैं।

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