कृषक-किशोरी
होठों पर तो शतदल खिलते,
नयनों में नव्य रंग सजते,
इंद्रधनुषी नव स्वपनों के
घिर -घिर आते कारे बादल।
अल्प वस्त्रों में है आवृत्ता,
कसी और तपी नव यौवना,
ढल – ढल कर माथे से सीकर
श्रम की लिखते अमिट इबारत।
सांचे में ढली हुई काया,
मूर्तिमान नारी या माया,
खेतों में रह-रह लहराता
तरुणी तन्वी तेरा ऑंचल।
मंद-मंद बहता मस्त पवन,
सिहर -सिहर जाता है तन- मन,
घुंघरू कान में है बजते
बिन बाॅंधे ही कोई पायल।
कलिका खिल कर के फूल हुई
कोमल-कोमल और अनछुई,
देख नव रूप की मादकता
कितने भॅंवरें हुए पागल।
आखिर यह कौन सा पड़ाव,
दहक उठा अनजाना अलाव,
लज्जा ने लगा दी मन द्वारे
संयम नियम की एक सांकल।
प्रतिभा आर्य
चेतन एनक्लेव
अलवर ( राजस्थान)