कुरुक्षेत्र की व्यथा
इन्द्रप्रस्थ से ही बात शुरु हुई थी
अब जाकर पाॅंच ग्राम पर ठहरी
जिद्दी दुर्योधन भी अड़ा हुआ था
खाई भी हो गई थी बढ़ कर गहरी
धरा अब यहाॅं धरा कहाॅं रही थी
रक्त की जब खुली नदी बही थी
महाध्वनि थी धनुष टंकार की
और वीर योद्धाओं के हुंकार सी
कोई उम्मीद अब थी कहीं नहीं
जो भी हो रहा वहाॅं था वही सही
रणभूमि कुरुक्षेत्र कर रहा पुकार
बोझ अब उससे सहा जाता नहीं
पर पापियों का अन्त देखे बिना
उसे अब रहा भी तो जाता नहीं
रक्त से सना हुआ परिधान मेरा
अब दिख रहा पूरा लाल लाल है
जिधर भी मैं देखता हूॅं उधर ही
महा चक्रव्यूह का बिछा जाल है
जब पाप का वहाॅं फूटा था घड़ा
स्वयं काल वहाॅं सम्मुख था खड़ा
था वीर अभिमन्यु जैसा महारथी
धोखे से मिली उन्हें कैसी वीरगति
मन तो अब पूरी तरह कांप रहा
नीचे गिरने का न कोई नाप रहा
ज्ञान अज्ञान तो सिर्फ यहाॅं शब्द था
आज हर ज्ञानी यहाॅं नि:शब्द था
धैर्य और धीरज का कोष था रिक्त
बंजर ह्रदय न कोई था स्नेह सिक्त
पग पग पर अनुशासन हुआ था भंग
कपटी दुर्योधन का बदला हुआ था रंग
कर्ण,शकुनि और दुशासन को छोड़
दुर्योधन किसी की नहीं सुन रहा था
कपट से हस्तिनापुर सिंहासन का
मन में स्वर्णिम सपना बुन रहा था
अब तो ना कोई भी इच्छा थी कहीं
बस केवल मृत्यु की प्रतीक्षा ही रही
सहस्त्र तीरों का बड़ा शैय्या था गड़ा
देवव्रत भीष्म उस पर लेटा था पड़ा
इधर जयद्रथ भी अब मारा गया था
महारथी कर्ण की भी थी बलि चढ़ी
गुरु द्रोण का भी देख कर बुरा अन्त
जिह्वा की प्यास मेरी और भी बढ़ी
असत्य की विजय का धुन बजा कर
हर क्षण सभी जीत जीत रटते रहे थे
एक-एक कर सारे ही महायोद्धा भी
व्यर्थ में यहाॅं हर दिन ही कटते रहे थे
सत्य के मार्ग पर चल कर पाण्डवों ने
असत्य का पूरा कर दिया था विनाश
इधर अहंकार के नशा में कौरवों ने
स्वयं का ही कर लिया था सत्यानाश
मेरी छाती पर ही चढ़ कर सभी अब
महाभारत की वीर गाथा गा रहा था
युगों तक लगने वाले कलंक की सोच
मैं अपने भार से ही दबा जा रहा था
देख रणभूमि में योद्धाओं का कटा सर
यहाॅं पर बर्बरीक को रहा जाता नहीं
इधर अपने ही कटे सर का बोझ भी
अब उससे स्वयं भी सहा जाता नहीं
चाल बासुदेव श्री कृष्ण की भी थी
एकदम ही सामान्य समझ से परे
बर्बरीक भी अब स्वयं संशय में था
इस युद्ध का निर्णय कोई कैसे करे