कुदरत की मांग….
मौसम बिल्कुल साफ है, फिर भी हालात खिलाफ है ,
पहली बार कुदरदत का, खुद से खुद का मिलाप है।
दोबारा जैसे कुदरत ने, अपने अस्तित्व को जन्म दिया,
हर जीव ने मानों, निर्भय शीश उठाकर भृमण किया।
कुदरत ने शायद ये, एक अरसे बाद महूसस किया,
दूसरों को सदा दिया, अब खुद जैसे निसंकोच जिया।
जीवों की बारी आई अब, माँ का करज चुकाना है।
बच्चों ने अपनी माँ के, वलिदान को कब पहचाना है।
मैं ही पहल क्यों करूँ, हर ओर ही मानों ये भाव है,
अभी संभल जाएं अच्छा है, अभी तो छोटा घाव है।
आओ मिलकर संकल्प भरें, सिर्फ लेते ही ना रहा करें,
जितना लिया है हमने, उससे ज्यादा देने का यत्न करें।