कुछ तो है गड़बड़ …!!
कुछ तो है गड़बड़ …!!
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तू तो करता नवल नित छल, कुछ है गड़बड़।
किन्तु है मेरा मन कोमल , कुछ हैं गड़बड़।
धर्म की देता नित्य दुहाई।
राम पे तुझको दया नहीं आई।
शिव जी, हनुमत पे धावा प्रबल,
कुछ है गड़बड़।
तू तो करता नवल नित छल, कुछ है गड़बड़।।
महंगाई नित आँख दिखाये।
बेरोज़गारी मुँह चिढ़ाये।
प्रोन्नति है या है दलदल,
कुछ है गड़बड़।
तू तो करता नवल नित छल, कुछ है गड़बड़।।
विपक्षी सब त्रस्त पड़े हैं।
सङ्ग सगे निज भ्रष्ट खड़े हैं।
छल- बल से तू लगता सबल,
कुछ है गड़बड़।
तू तो करता नवल नित छल, कुछ है गड़बड़।।
संचार माध्यम माथ नवाये।
महिमामण्डन करती जाये।
स्याह उर किन्तु पट है धवल,
कुछ है गड़बड़।
तू तो करता नवल नित छल, कुछ है गड़बड़।।
जुमलों की बरसात बड़ी है।
जन-जन की तो खाट खड़ी है।
चल गया है ये कैसा चलन,
कुछ है गड़बड़।
तू तो करता नवल नित छल, कुछ है गड़बड़।।
✍️ संजीव शुक्ल ‘सचिन’ (नादान)