कुछ हादसों के अल्फाज़ नहीं होते
कुछ हादसों के अल्फाज़ नहीं होते
कियुं वे अल्फाज़ दिलों की
गहराईयों को नहीं छू पाते.
किन लफ़्ज़ों मेँ जिक्र करू
जब मेरा बेटा तड़फ रहा था
कैंसर की तीखी तड़फ से
आंखे उसे देखेने को तड़फती
हाथ उसे छूने को तड़फती
दिल खुदा से, दुआएं मांगती
और मैं……
न उठ सकता था, न चल सकता था,
न हिल सकता था, न बैठ सकता था
कियुं की मैं खुद मौत से झूझ रहा था
कुछ हादसों के अल्फाज़ नहीं होते
किन अल्फाज़ो से अर्ज़ करू
क्या गुज़री मेरे दिल के गहराइयों मेँ
जब मैंने मेरे एकलौते, बेटे के
चिता मेँ, आग लगाई….
कुछ हादसों के अल्फाज़ नहीं होते…
किस अल्फाज़ो से जिक्र करू
मेरे दोस्तो की दोस्ती,
किया जिन्होंने मेरे मौत से
जूझने इंतज़ाम, बिना झिझक के
और जब मैंने शुक्र गुज़ार अर्ज़ किया…
मुकर गये सारे दोस्त मेरे
इस हादसे के इंतज़ाम से..
कुछ हादसों के अल्फाज़ नहीं होते
शुक्र गुज़ार हूँ, उन अनजान
फ़रिश्ते जो आये मेरे, गमगीन वक़्त मेँ
और पोंछ दिया मेरे, सारे तकलीफें
इन खुदाई अहसानो के अहसास मेँ
अहसानमंद रहेगी मेरी सारी जिंदगी,
जब तक सांसे चलेगी इस बदन मेँ..
किस अल्फाज़ो ने अर्ज़ करू ये दरियादिली!
जिस का ना तो कोइ नाप है, न तोला है
न लें है, न दें है…
कुछ हादसों के अल्फाज़ नहीं होते